धूपबत्तियों से घिरे भगवान को देखकर मुझे मुर्दे की याद आती है. वैसे श्रद्धा के सांप का जहर उतर चुका है फिर भी गाहे बगाहे मंदिरों की सीढियां चढ जाता हूं. हंसी की तलाश में. हिंसक वक्त में आस्था के केंद्रों का विद्रुप देखना भी खासा मजाकिया होता है. इस तरह कम होती हंसी को भी फिर ताजा दम कर लेता हूं. मंदिर हमारे समय के सबसे बेहतरीन हंसीघर हैं और मंदिर जाना सबसे बेहतरीन मजाक है, जिसे कई लोग नियमित तौर पर चबाते हैं. किसी मंदिर की सीढियों पर बैठकर आते जाते लोगों को देखना सचमुच किसी नीरस व्यक्ति में भी हास्यबोध भर देगा. आने जाने वाले अच्छी तरह जानते हैं वहां कुछ नहीं है सिर्फ जोर से उच्चारी गई कमजोर इच्छा के सिवा. दिलचस्प यह भी है कि हर रोज यहां आने वाले चेहरों में बदलाव होता रहता है. जैसे जो चमकदार चेहरा है वह और और और चमकदार होता रहता है और झुर्रियोंदार शक्लें लगातार बूढी होती रहती हैं. भगवानों के इस घटाटोप में सबसे मजेदार यहां की खुशबू ही है. जिसमें कसैलापन अपनी पूरी कडवाहट के साथ है. ये दिलों में यहीं से उतरती है... मंदिरों से. यहां से उपजी कविता.
कसैली संभावना
वहां शोर था सुनने के लिए
वहां आवाज थी गुनने के लिए
वहां चेहरे थे देखने के लिए
वहां गंध थी सूंघने के लिए
वहां आदमी नहीं थे
सब के सब ईश्वर थे
हां, कुछ भक्त थे
और उनमें संभावना थी आदमी होने की
पर वह अगरबत्ती के धुएं में कसैली हो गई थी
और वे सब आंखें बंद किए थे
यह बात हर संभावना के खिलाफ जाती थी
कसैली संभावना
वहां शोर था सुनने के लिए
वहां आवाज थी गुनने के लिए
वहां चेहरे थे देखने के लिए
वहां गंध थी सूंघने के लिए
वहां आदमी नहीं थे
सब के सब ईश्वर थे
हां, कुछ भक्त थे
और उनमें संभावना थी आदमी होने की
पर वह अगरबत्ती के धुएं में कसैली हो गई थी
और वे सब आंखें बंद किए थे
यह बात हर संभावना के खिलाफ जाती थी