मेरे लिए प्रेम कविताएं लिखना उतना ही मुश्किल रहा है जितना किसी क्राइम रिपोर्टर के लिए धार्मिक बीट देखना. मेरी जान सूख जाती है. होंठ सूख जाते हैं, पेट में बल पडने लगते हैं. शब्द, मुहावरों समेत मुंह फेर लेते हैं और कांपती उंगलियां की-बोर्ड पर यूं बैठती हैं जैसे जनवरी का जाडा उनकी हड्डियों में पैठ चुका हो. फिर भी लिखना तो है क्योंकि अगर नहीं लिखूंगा तो बेचैनी और बढेगी. बीमारी कम न होगी. पाब्लो की प्रेम कविताएं पढते हुए भी तकरीबन ऐसी ही हालत होती है. यानी प्रेम के बारे में लिखना और पढना दोनों ही तकलीफदेह है.आज उसने कहा कि कविता लिखना और खाना बनाना एक जैसा ही है. नहीं यह नहीं हो सकता. खाना बनाने का एक तय फार्मूला है.
नमक, मिर्च, जीरा,.... सब कुछ कितना पडेगा इसका पूर्व निर्धारित फार्मूला है. कौन सी चीज ज्यादा होने पर उसका स्वाद कैसा होगा यह भी तय है. कविता में ऐसा नहीं हो सकता. अलग अलग जीभों के लिए कविता का स्वाद अलग अलग होगा. किसी एक शब्द के बढने का प्रभाव उसके घटने के प्रभाव के बराबर हो यह जरूरी नहीं. और सबसे बडी बात कविता में खुद वह महत्वपूर्ण होती है. अपना असर वह खुद छोडती है. खाना बनाने वाले की तरह नहीं जिसमें सारी कारीगरी और कमाल हाथों का होता है. अब बस. ये दो कविताएं
लफ्ज
उसने कहा- प्रेम
और वह मुस्कुरा दी
उसने कहा- इश्क
उसकी शरारती आंखों में झांकने लगा एक सपना
उसके मुंह से निकला- मुहब्बत
वह अपने में सिमट गई
अचानक उनके बीच गूंजा- लव
वह उठी
और तेज कदमों से चल दी
कभी न लौटने के लिए
आखिर ये दिल टूटता क्यों नहीं
2005 की कुछ बची खुची शामें थीं वे
जिनमें हल्की सर्दी और तीखी धूप
सीने और सिर पर पडती थी
इस देश की आधिकारिक गैर सांप्रदायिक सरकार का शासनकाल था वह
उन्हीं में से एक शाम
सर्दी और धूप से ज्यादा मार
शब्दों की पडी थी उसके सीने पर
यह वही वक्त था जब मेरठ के एक पार्क में
प्रेम पर लाठियां चलीं थीं
और झज्जर के एक प्रेमी जोडे ने मरना बेहतर समझा था
अलग-अलग जीने से
और दूर तुमकूर में एक प्रेमी ने अपनी कलाई चाक कर दी थी
जिसका कारण न तो दर्द की इंतहा देखना था
न ही खून के बुलबुलों का संगीत सुनना
उस शाम उसे अफसोस हुआ कि वह इमरान क्यों है!
कोई संदीप या विकास या रवि क्यों नहीं
तब शायद आसानी होती उसे
प्रेम का युगल गीत गाने में
उसे पता नहीं था
कि महेंद्र सिंह सोलंकी सामाख्याली में अब भी अकेला है
जबकि संगीता शर्मा की कुंडली में भी मंगल ठीक वहीं है
जहां महेंद्र की कुंडली में विराजा है
इन सभी घटनाओं के केंद्र से परे
रोशन केरकेट्टा सिमडेगा की खाली सडक पर गुनगुना रहा था
"तुम सितम और करो टूटा नहीं दिल ये अभी"
यह भी 2005 की एक शाम थी