अभी अभी अखिलेश जी से बात हुई. मेरठ वाले अखिलेश जी, नहीं भोपाल वाले, नहीं नहीं रांची वाले..... या छपरा. खैर छोडो. फिलहाल वे मेरठ में हैं. मेरे बदतमीज दिनों के सबसे यकीनी आसरे. यहां वहां की आवारगी के बाद जब कभी फुरसत पानी होती है. मेरठ चला जाता हूं. घर का सुकून मिलता है. आशी के साथ खेलना इसका सबसे मजबूत हिस्सा है. आसी यानी अखिलेश और चित्रांशी की बेटी. मेरी भतीजी. कूकू की दोस्त. नन्ही आसी से दोस्ती के दो साल यादगार रहे हैं. उसके सामने सिगरेट नहीं पी जा सकती और उसके लिए दुनिया की सबसे हसीन जगह साकेत का गोल मार्केट है. उसी के साथ वहां के खरगोश, बतख, चिडियों समेत कई कुत्तों से भी दोस्ती की. अपनी आरामतलबी को उसके भोलेपन से ओढाते हुए कई दोपहरे काटी हैं, नौकरी के दरम्यान. चाय की चुस्कियों के साथ बतकही. मेरठ की यही शक्ल है मेरे पास.
खैर बताता चलूं कि अखिलेश का जिक्र फिलवक्त बेसबब नहीं है. खबर यह है कि अखिलेश ने इन दिनों अपना ब्लॉग शुरू किया है.
अ-शब्द. उनकी फितरत से मेल खाता नाम है. वे चुप्पी ओढते हैं. खतरनाक हद तक जाती चुप्पी. सब कुछ जानने वाली चुप्पी भी नहीं. आपसे असहमत चुप्पी होती है अखिलेश जी की. पहला राब्ता भोपाल में पडा था, उस वक्त अखिलेश एक कवि थे. उनकी बोलने की शैली पूर्वांचल और बिहार के संधि स्थल की खुशबू मारती है. हर्सीकार को दीर्घ नासिका से उचारना उनका खासा खूबसूरत रंग है. नाटक, साहित्य और विवि की राजनीति में अपनी "होनहार" उपस्थिति के लिए मशहूर अखिलेश इन दिनों मेरठ के मकानों में हैं. कविताएं बहुत अच्छी लिखते हैं. लंबे समय की जागरण की डेस्क की नौकरी ने उन पर असर छोडा है. इसका सुबूत उनकी ब्लॉगिंग पर साफ दिखाई दे रहा है. यहां खबरें हैं और खबरों के बीच का जंगआलूदा ककार. हां पुराना लिखा उतना ही सुकूनदेह है, जितना अखिलेश की हंसी का तिलिस्म. उम्मीद करता हूं वे जल्द कवि अखिलेश को हमारे बीच नमूदार करेंगे. अपनी पूरी राजनीतिक समझ और दुनियावी हकीकतों से रूबरू कराते हुए. जो उम्मीद के आसमान पर सबसे ऊंची उडान भरता रहा है. कभी भोपाल, कभी रांची और कभी साकेत से लेकर माधवपुरम तक में. नए ब्लॉगर, पुराने साथी और संभावित बडे कवि को
यहां क्लिक कर उकसा सकते हैं.
अगर मेरी मानें तो अखिलेश का त्रिलोचन पर लिखा गया संस्मरण जरूर पढ लीजिएगा. फिलहाल उनकी एक कविता यहां साया की जा रही है, उन्हीं के ब्लॉग से चुराकर.
मां की तस्वीर
यह मेरी मां की तस्वीर है
इसमें मैं भी हूँ
कुछ भी याद नहीं मुझे
कब खींची गयी थी यह तस्वीर
तब मैं छोटा था
बीस बरस गुजर गए
अब भी वैसी ही है तस्वीर
इस तस्वीर में गुडिय़ा-सी दिखती
छोटी बहन अब ससुराल चली गयी
मां अभी तब बची है
टूटी-फूटी रेखाओं का घना जाल
और असीम भाव उसके चेहरे पर
गवाह हैं इस बात के
चिंताएं बढ़ी हैं उसकी
पिता ने भले ही किसी तरह धकेली हो जिंदगी
मां खुशी चाहती रही सबकी
ढिबरी से जीवन अंधकार को दूर करती रही मां
रखा एक एक का ख्याल
सिवाय खुद के
मैं नहीं जानता
क्या सोचती है मां
वह अभी भी गांव में है
सिर्फ तस्वीर है मेरे पास
सोचता हूं
मां क्या सचमूच
तब इतनी सुंदर दिखती थी।