राजकमल, वे तुम्हारी ओट से झांक रहे हैं

सिर्फ अपनी बीवी
और सिर्फ अपनी दो सौ चालीस की नौकरी
बांधती थी उसे
अपने नागरिक व्यूह में
राजकमल चौधरी

माफी चाहूंगा. लंबा अरसा हुआ आपसे मुखातिब नहीं हुआ. अखबारी जिम्मेदारी और निजी वजुहात कई बार दिली काम पर हावी हो जाती हैं. न चाहते हुए भी हम उस तरफ बहे चले जाते हैं, जहां नहीं जाना चाहते, जहां पहुंचकर फिर वापस लौटना होगा, जानते हैं. फिर भी रफ्तार यही है, बेसबब बहने की रफ्तार. जो बच जाते हैं इस बहाव से वे नया रचते हैं, यकीन पैदा करते हुए, भीड से अलग होकर रास्ता ईजाद करने वाले. दिलचस्प और तसल्लीबख्श बात यह कि इन दिनों ऐसे ही लोगों के साथ था. उन फिक्रों पर फिर कभी बात करेंगे, जो इस दौरान दिल-ओ -दमाग पर छायी रहीं. फिलवक्त तो एक कवितानुमा तसदीकी बयान आपको सौंपना चाहता हूं. इसके पहले कि आप इस बयान की कविता पर जाएं, कुछ चीजें साफ कर दूं. जीवन मैं मेरी दिलचस्पी कम नहीं हुई है. हां कभी-कभी घटाटोप डराता जरूर है, लेकिन कभी-कभार होने वाले रोड एक्सीडेंट के डर से तेज रफ्तार बाइक का लुत्फ तो नहीं छोडा जा सकता न? लेकिन तब क्या करें, जब पास बैठी शक्ल ही घुमावदार जीवन की सबसे बडी दुश्मन बन जाए. साथी हाथ ही सरसराहट का भय पैदा करे और मुकम्मल भरोसे की आंख का बाल ही चुभने लगे कांटे की तरह. यह कविता कुछ ऐसे ही वक्त का बयान है. इसे जीवन के सबसे बडे रूप यानी बेहतर दुनिया की शक्ल तैयार करने की जद्दोजहद के साथ रखकर भी देख सकते हैं और उससे पूरी तरह किनारा करके भी. पर लगता नहीं लोगों की तकलीफदेह जिंदगी से आप आंख फेर पाएंगे...


राजकमल तुम याद आ रहे हो
दोस्त की तरह नहीं (तुमसे दुश्मनी क्यों कर होगी)
बस, याद आ रहे हो
तुम्हारी अराजकताओं की आड़ में वे मोर्चे से जा रहे हैं
पीठ दिखाकर नहीं
धीरे-धीरे कदम पीछे करके
गांजे की तीखी दुर्गन्ध उनके नथुने फाड़कर
घुल रही है ताजा हवा में
वे पूरी निर्लज्जता से धीरे-धीरे बुदबुदा रहे हैं
`मुक्ति-प्रसंग
तुम्हारी सलाह को तर्क में तब्दील कर लिया है उन्होंने
वे जा रहे हैं मसानों में
अधजली लाशें खाने नहीं
एकांत का रस भोगने
वे जा रहे हैं काली और अंधी दुनिया में
खिलखिलाते हुए
उन्हें लोकतांत्रिक पद्धतियों ने नहीं, उन्हीं की कमजोरी ने तोड़ दिया

राजकमल तुमने मुक्तिबोध को मरते देखा था
तुम रोये नहीं थे उस खांसती मौत पर
तुम्हारी कविता में पसरा वह ब्रह्मराक्षस जाते वक्त तुम्हे याद कर रहा था
वह जिसने सब कुछ बेचकर पैसा पाती
और पैसे से बहुत कुछ खरीदती भीड़ में शामिल होने से इनकार किया था
तुम्हें क्यों याद करता था राजकमल?
तीन साल भी नहीं रह सके तुम उसके बिना
उसी की राह पर चल दिये
फिर न लौटने के लिए

अब तुम शिकायतें भी नहीं सुनते, पहले भी नहीं सुनीं तुमने भोथरी दलीलें
ठेंगे पर रखे रहे गोरों की गुलामी से मिली सामंती आजादी को
अपने ही लिखे को बार-बार बदलते हुए तुम कितने बेचैन रहे किसी को नहीं पता!!
उन्हें बस पता हैं, तुम्हारी नारा बन चुकी पंक्तियाँ
उनकी जुबान जरा भी नहीं कांपती तुम्हारा नाम लेते
तुम्हारी तरह होने का ढोंग करते हुए वे बच निकलते हैं धूमिल की सड़क से
10 साल तक अपनी कविताएं यूं ही नहीं चिपकाए रहे तुम छाती से
उन्हें लेकर नहीं मरना था तुम्हें
अपने ऊपर चलाए मुकदमों के साथ 10 लम्बे साल गुजारते हुए तुम जरा-भी नहीं टूटे
बारीक नजर से पाखंडों और धोखों की श्रृंख्ला देखते तुम दिल्ली से सावधान रहे
जीवन की बुनियादी शर्त पर
एक ऐसे समय में जबअपनी अय्याशी के लिए तानाशाह सब कुछ मिटाने पर आमादा था

जीने की अदम्य इच्छा से भरे तुम जीवन की पहली शर्त के लिए रोये नहीं
पेट में भर लिया तुमने पके आटे से कई गुना चखना
भूख में ताकत होती है निर्णय लेने की
और तुमने लिया फैसला भूख को तोड़ने का
पेट भरने के लिए तन उघाड़ती स्त्री की आंख में नहीं झांक पाए तुम
तुमने तो बस जीवन में झांका था
पर देखो वे तुम्हारी ओट से झांक रहे हैं
लोकतांत्रिक पद्धतियां को ही तोड़कर
कस्साबों, गांजाखोरों, अफीमचियों, साधुओं, भिखमंगों की काली और अंधी दुनिया में तो उन्होंने तीखी
रोशनी फैला दी है
वहां अब अपनी तरह का कुछ भी नहीं है
और साथी जा रहे हैं तुम्हारी सलाह पर मोर्चे छोड़कर
तुम याद आ रहे हो राजकमल