कला को जीवित रहने के लिए जिस हवा और पानी की जरूरत होती है वह हमारे समय में तकरीबन खात्मे के कगार पर है। अफसोसनाक बात यह भी है कि इसे बचाने की जिद्दी कोशिशें भी कम ही हो रही हैं। ऐसे समय में इंदौर में शहर के बीचोबीच लगी एक अर्थवान कविता पोस्टर प्रदर्शनी तेज समय के बावजूद निगाह रोकती है।
अभय प्रशाल में लगी यह प्रदर्शनी शब्दों की ताकत के साथ अंधेरे को अंधेरा कहने की जिद से उपजी है। लिखे गये हरएक शब्द की अलहदा पहचान और उसके अर्थ को जीवित रखने की अपनी तरह की मजबूत कोशिश का बयान है यह प्रदर्शनी। चूंकि कविता प्रदर्शनियां अब हमारे अखबारात के लिए खबर नहीं हैं। उन्हें देखने की नजर को जुबान देना तो लगभग खारिज की चुकी बहस है। यह हर उस चीज के साथ संभव है, जो खूबसूरत जीवन में कुरूप रंगों को भी जगह देती है। हालांकि समानता के अहसास और कविता की मुलायम उंगलियों की सरसराहट से गुजरते हुए हम भूल जाते हैं कि जिन शब्दों से वह बुनी गई है, वे ही शब्द सुबह सुबह अखबार में कितने भोंडे रूप में सामने आते हैं। अखबार के बारे में यह तल्ख बयान इसलिए कि इस प्रदर्शनी में अखबार के हालिया रूप पर भी सवाल उठाये गये हैं। चूंकि कविता हर बुरी आदत के खिलाफ की गई सबसे जरूरी कार्रवाई है, इसलिए यहां अखबार में शब्दों के गैरजरूरी मिलाप पर भी सीधी टिप्पणी है।
बहरकैफ, भाषा से जनता तक का शीर्षक देते हुए रूपांकन के अशोक दुबे बेहद उत्साह से इसे पढ़ने के लिए पुकारते हैं। झुलसाऊ गर्मी और पसीने की नमी के बीच इन पोस्टरों को पढ़ना चेताता भी है और ललकारता भी। यहां गुलजार पेपरवाले को बदलने की बेहद मासूम सलाह दे रहे हैं, तो अखबारों का इतिहास और विज्ञापन छापने की शर्तों के तकरीबन भुला दिये गये जुमले भी साथ ही हैं।
प्रदर्शनी में लगी कविताएं लंबे समय से हमारी जुबान का आम हिस्सा रही हैं, लेकिन उनकी कलात्मक प्रस्तुति एक बार फिर नये अर्थों के साथ चेताती है कि बुराई के कामयाब होने के लिए अच्छाई का चुप रह जाना ही काफी है। मुक्तिबोध की मठों को तोड़ने की उम्मीद, दिनकर की तटस्थता की शातिर हरकत पर सवाल उठाती कविता और अकबर इलाहाबादी की तोप के मुकाबिल अखबार निकालने की नसीहत के अलावा यहां धूमिल, ब्रेख्त, चकबस्त, अरुण कमल और नरेश सक्सेना की कविताएं भी हैं। जो अपने समय के सबसे जरूरी सवालात से मुठभेड़ करती हैं। असल में यह प्रदर्शनी धारा के विरुद्ध तैरते लोगों के सपनों और उनकी लड़ने की अदम्य इच्छा को समपिüत है, जिन्होंने अंधेरे दौर में भी रोशनी की उम्मीद नहीं छोड़ी है। कविता इस उम्मीद का सबसे पहले बयान रही है, सो पोस्टरों में भी वह मुखर ढंग से आई है। पोस्टरों में सफेद, ग्रे और ब्लैक बैकग्राउंड का इस्तेमाल किया गया है, जो हमारे समय की तीन सच्चाइयों का रूपक बुनता है। मनुष्यता के खिलाफ जारी साजिश को बेनकाब करने की छोटी लेकिन महत्वपूर्ण कोशिश के साथ इन पोस्टरों में कुछ सवाल हैं, जो हमारे ठंडे हो चुके इरादों को जुबान भी देते हैं और आग भी।
अभय प्रशाल में लगी यह प्रदर्शनी शब्दों की ताकत के साथ अंधेरे को अंधेरा कहने की जिद से उपजी है। लिखे गये हरएक शब्द की अलहदा पहचान और उसके अर्थ को जीवित रखने की अपनी तरह की मजबूत कोशिश का बयान है यह प्रदर्शनी। चूंकि कविता प्रदर्शनियां अब हमारे अखबारात के लिए खबर नहीं हैं। उन्हें देखने की नजर को जुबान देना तो लगभग खारिज की चुकी बहस है। यह हर उस चीज के साथ संभव है, जो खूबसूरत जीवन में कुरूप रंगों को भी जगह देती है। हालांकि समानता के अहसास और कविता की मुलायम उंगलियों की सरसराहट से गुजरते हुए हम भूल जाते हैं कि जिन शब्दों से वह बुनी गई है, वे ही शब्द सुबह सुबह अखबार में कितने भोंडे रूप में सामने आते हैं। अखबार के बारे में यह तल्ख बयान इसलिए कि इस प्रदर्शनी में अखबार के हालिया रूप पर भी सवाल उठाये गये हैं। चूंकि कविता हर बुरी आदत के खिलाफ की गई सबसे जरूरी कार्रवाई है, इसलिए यहां अखबार में शब्दों के गैरजरूरी मिलाप पर भी सीधी टिप्पणी है।
बहरकैफ, भाषा से जनता तक का शीर्षक देते हुए रूपांकन के अशोक दुबे बेहद उत्साह से इसे पढ़ने के लिए पुकारते हैं। झुलसाऊ गर्मी और पसीने की नमी के बीच इन पोस्टरों को पढ़ना चेताता भी है और ललकारता भी। यहां गुलजार पेपरवाले को बदलने की बेहद मासूम सलाह दे रहे हैं, तो अखबारों का इतिहास और विज्ञापन छापने की शर्तों के तकरीबन भुला दिये गये जुमले भी साथ ही हैं।
प्रदर्शनी में लगी कविताएं लंबे समय से हमारी जुबान का आम हिस्सा रही हैं, लेकिन उनकी कलात्मक प्रस्तुति एक बार फिर नये अर्थों के साथ चेताती है कि बुराई के कामयाब होने के लिए अच्छाई का चुप रह जाना ही काफी है। मुक्तिबोध की मठों को तोड़ने की उम्मीद, दिनकर की तटस्थता की शातिर हरकत पर सवाल उठाती कविता और अकबर इलाहाबादी की तोप के मुकाबिल अखबार निकालने की नसीहत के अलावा यहां धूमिल, ब्रेख्त, चकबस्त, अरुण कमल और नरेश सक्सेना की कविताएं भी हैं। जो अपने समय के सबसे जरूरी सवालात से मुठभेड़ करती हैं। असल में यह प्रदर्शनी धारा के विरुद्ध तैरते लोगों के सपनों और उनकी लड़ने की अदम्य इच्छा को समपिüत है, जिन्होंने अंधेरे दौर में भी रोशनी की उम्मीद नहीं छोड़ी है। कविता इस उम्मीद का सबसे पहले बयान रही है, सो पोस्टरों में भी वह मुखर ढंग से आई है। पोस्टरों में सफेद, ग्रे और ब्लैक बैकग्राउंड का इस्तेमाल किया गया है, जो हमारे समय की तीन सच्चाइयों का रूपक बुनता है। मनुष्यता के खिलाफ जारी साजिश को बेनकाब करने की छोटी लेकिन महत्वपूर्ण कोशिश के साथ इन पोस्टरों में कुछ सवाल हैं, जो हमारे ठंडे हो चुके इरादों को जुबान भी देते हैं और आग भी।