क्रिकेट। क्रिकेट। क्रिकेट। और क्रिकेट। ये पहला शतक, वो 48वां, अब सौ पूरे होंगे। फिर कौन तोड़ेगा रिर्काड। खबरों की भरमार। जब तक क्रिकेट जीवित है। भारतीय चैनलों और अखबारी दुनिया में न खबरों की कमी है। न खबर के एंगल की। भारतीय खेलों का पर्याय बन चुके इस एक खेल ने जहां रगों में उत्तेजना भरने और सांस रोक देने वाले क्षण मुहैया कराये हैं, वहीं बाकी खेलों के लिए अंधेरे की एक सुरंग बना दी है। जहां से जब तब निकलकर कुछ नाम तो सामने आते हैं, लेकिन खेलों का वह जादू नहीं दिखता, जहां सब बराबर हो। पैसे और शोहरत के बीच जीते क्रिकेटरों की कामयाबी रोमांच पैदा करती है, लेकिन अन्य खेलों के आला दर्जे के खिलाड़ी बदहाल और गुमनाम जिंदगी जीने को मजबूर हो जाते हैं।
एकरसता और अति हर चीज की बुरी होती है और भारतीय खेलों के साथ इन दिनों यह अति बेहद तीखे अंदाज में हो रही है। बीती सदी के आखिरी दशक में जब सब कुछ बिकने लगा तो भारत खेलों के खरीदार भी सामने आये। हॉकी की दुर्दशा और अन्य खेलों में कोई बड़ी उपलब्धि न होने के कारण बाजार की नजर क्रिकेट पर पड़ी। कपिल देव की जांबाज टीम ने कैरबियन तूफान को थामकर उम्मीदों को आसमान पर पहुंचा दिया था और फिल्मों के दीवाने देश में गावस्कर, शास्त्री, पटौदी, पाटिल युवाओं के आइकॉन बनने लगे। ठीक इसी वक्त में एक नाटे कद के खिलाड़ी का पदार्पण हुआ, जिसे बाद में भगवान की संज्ञा दी गई। यानी खरीदारों के लिए सबसे अच्छा माल था क्रिकेट। दो दशक पहले शुरू हुआ यह खरीद-फरोख्त का दौर अब पूरे सबाब पर है।
क्रिकेट की चमक और अन्य खेलों का अंधेरा
खेलों में आये पैसे की यह तस्वीर कुछ बुरी नहीं लगती, लेकिन बुरा है दूसरे खेलों का गुमनामी की तरफ जाना और क्रिकेट का खेल से कुछ ज्यादा हो जाना। क्रिकेट अब कॅरियर है, पॉवर है, शोहरत है और पैसा है इसके बरअक्स बाकी खेल-वक्त की बरबादी। यही वजह है कि छुटभैये क्रिकेटर की तारीफ के कसीदों का वजन विजेंदर और अखिल के मुक्के से ज्यादा होता है और अभिनव के अचूक निशाने से ज्यादा तारीफ तीन डंडों पर पांच मीटर की दूरी से फेंका गया थ्रो पाता है। क्रिकेट की उपलब्धियों पर खुशी स्वाभाविक है लेकिन, सवाल ये है कि ये खुशी तब क्यों नहीं होती जब दूसरे खेल में मेडल मिलते हैं। ओलंपिक का पदक और बॉक्सिंग चैंपियन का तमगा भी विजेंदर को दिल्ली में ऑटो की सवारी करने की मजबूरी से बचा नहीं पाता, अजलान कप की सफलता भी ध्यानचंद की पौध को फिर हरियाली नहीं दे पाती, पेस-भूपित के हाथ में चमचमाती ट्रॉफी के बावजूद टेनिस के रैकेट थामने वाले हाथ कम ही हैं।
बाजार के हथियार से दिलों पर राज
यानी कोई वजह तो है जो क्रिकेट भारतीय आवाम की धड़कनों में इस तरह बसा हुआ है कि वहां किसी और खेल के लिए जगह नहीं बन पाती। असल में यह जगह बाजार ने ही बनाई है। क्रिकेट बाजार को रियायत देता है। इसमें खुशी के लिए जीत ही सब कुछ नहीं है। अगर टीम हार भी जाये तो किसी के शतक का ढिंढोरा पीटा जा सकता है, हैट्रिक के आंकड़े खोजे जा सकते हैं, अच्छी फील्डिंग और चंद रोमांचक क्षणों को बेचा जा सकता है। हॉकी के बजाय क्रिकेट में व्यक्तिगत उपलब्धियों के लिए ज्यादा जगह है। इसमें हर रन, हर ओवर, हर विकेट पैसे बरसाता है।
मैदान और मैदान के बाहर की चुनौती
ऐसे में अन्य खेलों के लिए क्या किया जाए? क्या उन्हें इस तरह छोड़ दिया जाए? या फिर विभिन्न खेलों में आगे बढऩे को बेताव नन्हें इरादों को सहारा दिया जाये? जाहिर है दूसरा रास्ता ही बेहतर खेल माहौल की नींव बनेगा। अफसोस यह है कि भारतीय खेलों के कर्ताधर्ता इस बात को तवज्जोह नहीं देते। हम कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर वाहवाही भले ही लूट लें, लेकिन अगर भारत फिसड्डी साबित हुआ, तो इसका अफसोस शायद मन से कभी न जा सकेगा। अन्य खेलों का बाजार बनाने के लिए जरूरी है कि सितारा हैसियत रखने वाले खिलाड़ी पूरी ऊर्जा के साथ इस काम में लगें और नये खिलाडिय़ों को प्रोत्साहन दें। इसकी मिसाल हाल ही में फिल्म अभिनेता जॉन अब्राहम और फुटबॉल खिलाड़ी बाइचुंग भूटिया ने दी। वे चाहते हैं कि भारत में फुटबॉल को बढ़ावा मिले। भूटिया कहते हैं कि क्रिकेट के दीवाने भारत में अगर फुटबॉल को लोकप्रिय बनाना है तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अच्छा प्रदर्शन करना जरूरी है। जाहिर है इसके लिए सरकारी नीति और प्रोत्साहन जरूरी कवायदें हैं।
2010 फीफा फुटबॉल वल्र्ड कप दक्षिण अफ्रीका में 11 जून से 11 जुलाई तक खेला जाएगा। दुनिया भर में फुटबॉल के चढ़ते बुखार के बीच भारत में भूटिया और जॉन अब्राहम इस खेल का प्रचार कर रहे हैं। बाइचुंग कहते हैं- भारतीय फुटबॉल फेडरेशन और मुझ जैसे खिलाडिय़ों को इस खेल को लोकप्रिय बनाने के लिए मेहनत करनी पड़ेगी। जब तक भारतीय फुटबॉल अंतराष्ट्रीय स्तर पर अच्छा प्रदर्शन नहीं करती है, तब तक इसका लोकप्रिय होना मुश्किल है। बाइचुंग कहते हैं कि अगर कोई भी खेल क्रिकेट जैसी लोकप्रियता चाहता है तो उसके लिए कड़ी मेहनत की जरूरत है। हालांकि जॉन बाइचुंग की बात से इत्तेफाक नहीं रखते वे कहते हैं- नये फुटबॉल खिलाडिय़ों को बढ़ावा देने के लिए अच्छे सरकारी तंत्र की जरूरत है। सिर्फ एक बाइचुंग कैसे इस खेल की स्थिति को सुधार सकता है, हमें बाइचुंग जैसे कई बढिय़ा खिलाडिय़ों की जरूरत है। जॉन मानते हैं कि एक अभिनेता होने के नाते खेल से जुड़ी फिल्में भी करनी चाहिए। जॉन आगे कहते हैं कि मेरी फिल्म धन धना धन गोल के बाद शायद इसकी अगली कड़ी भी बने। वे आगे भी खेल से जुड़ी फिल्में करने कि उम्मीद रखते हैं और यह किसी भी अभिनेता के लिए जरूरी मानते हैं। भूटिया और जॉन की सदइच्छाओं के साथ जो बात सामने आती है वह यह कि क्रिकेट का घटाटोप इतना बड़ा है किसी और खेल के लिए युद्धस्तरीय प्रयास ही ऊंचाई दे सकते हैं। क्रिकेट के बाजार ने मीडिया को उसके पीछे लगा दिया है, जहां अन्य खेलों के लिए जगह लगातार घटती जा रही है। यानी अन्य खेलों के खिलाडिय़ों के लिए चुनौती दोहरी है। उन्हें मैदान और मैदान के बाहर दोनों जगह खुद को साबित करना है। अन्य खेलों का बाजार बनने की पहली शर्त बेहतरीन प्रदर्शन ही है, जिसे सीमित संसाधनों और विपरीत परिस्थितियों में पाना होगा।
राष्ट्रमंडल खेलों से उम्मीद
इस साल अक्टूबर में आयोजित होने जा रहे राष्ट्रमंडल खेलों से कइयों की उम्मीदें जुड़ी हैं। इनमें से एक दूरदर्शन भी है। देश में सबसे ज्यादा पहुंच रखने वाले इस चैनल को राष्ट्रमंडल विज्ञापनों से अच्छी आमदनी होने की उम्मीद है, जिससे इसकी कमाई 1,000 करोड़ रुपये के आंकड़े को पार कर सकती है। इसके बरअक्स महज एक टूर्नामेंट में क्रिकेट की कमाई देखें तो हाल ही में खत्म हुए आईसीसी विश्व कप ट्वेंटी-20 के जरिये प्रसारक चैनल ने विज्ञापनों से 250 से 300 करोड़ रुपये की कमाई की जबकि डेढ़ महीने तक चले इंडियन प्रीमियर लीग का प्रसारण करने वाले चैनल सोनी सेट मैक्स ने विज्ञापनों से 700 करोड़ रुपये की कमाई की।
और अंत में नाउम्मीदी का पानी
भारत में क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों को हमेशा ही परेशानी का सामना करना पड़ता है। भारत सरकार की उपेक्षा के कारण भी इनकी स्थिति और बदतर हुई है। यानी अन्य खेलों का दुश्मन नंबर एक है क्रिकेट और नंबर दो है बाजार, जिसे क्रिकेट के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता। इसके अलावा भारतीय मध्यम वर्ग ने भी अन्य खेल के प्रति उपेक्षा दिखा कर सत्यानाश किया है। वैसे अन्य खेलों की बदहाली के लिए उनके फेडरेशन भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। क्रिकेट की तुलना में अन्य भारतीय खेलों की खबरें स्कैंडलों और जूतमपैजार के रूप में ही सामने आती हैं। हालांकि इसे भी शक की निगाह से देखा जाना चाहिए, क्या यह अन्य खेलों को पीछे धकेलने की एक और चाल है?
आज क्रिकेटरों की माल की तरह नीलामी की जा रही है। इसमें पैसों की चमक बढ़ाकर दूसरे या अन्य सभी खेलों को बौना बनाया जा रहा है जिसके कारण दूसरे खेलों के खिलाडिय़ों में हीन भावना घर करती जा रही है। यदि ऐसा ही रवैया चलता रहा तो आने वाली नई पीढ़ी क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों को भूल भी जाएगी। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। मौजूदा राष्ट्रीय हॉकी टीम के कुछ खिलाडिय़ों ने एक समय में अपने साथ सौतेला व्यवहार किए जाने की शिकायत करते हुए भूख हड़ताल पर जाने की धमकी दी थी। उनका कहना था कि ट्वेंटी-20 क्रिकेट विश्वकप जीतकर लौटी भारतीय क्रिकेट टीम पर तो इनामों की बौछार की जा रही है, लेकिन एशिया कप जीतने वाली हॉकी टीम को नजरअंदाज किया जा रहा है। कुल मिलाकर यह समझना चाहिए कि क्रिकेट ने भारतीय खेलों का 'भगवान' दिया है है, लेकिन, सचिन की कला के साथ राजपाल सिंह, संदीप सिंह, भूटिया, पंकज आडवाणी, विश्वनाथन आनंद, विजेंद्र सिंह, अखिल कुमार, साइना नेहवाल, अभिन्न श्याम गुप्ता, लिएंडर पेस, महेश भूपति और देश के दूसरे महान खिलाडिय़ों के 'इंसानी' हुनर को भी वह इज्जत और शोहरत देनी चाहिए जिसके वे हकदार हैं।