वादा भी अजीब चीज है। करते वक्त लगता है सचमुच जीने का मकसद मिल गया। अब इसे निबाहना ही आदमी होने की शर्त है। लेकिन फिर तोड देते हैं। तोडते वक्त सब कुछ पहले की तरह हो जाने का अहसास चेहरे पर नुमायां हो जाता है। दिल इस डर में घुलने लगता है कि कमीनगी थोडी और बडी। दिमाग और दिल की कशमकश में दिमाग जीत जाता है। लोग सुनते रहे दिमागों की हम चले दिल को रहनुमां करके, की आत्ममुग्ध ताल बैठ जाती है, दिल में ही। हम फिर दौड में शामिल हो जाते हैं। कुछ पाने या साबित करने नहीं, बस बचे रहने के लिए।
कितनी खामोशी से कह दिया था कि अब नहीं लिखूंगा। कुछ नहीं, कहीं नहीं। 13 जून की वह शाम थी। दिल्ली की शाम। महानगर के महाशोर में कहा गया एक वाक्य, किया गया एक वायदा, तोड दिया। जिस दोस्त की तमीज पर तरस खाते हुए जमीन से ढाई इंच ऊपर खडे होकर न लिखने की जिद का हाथ पकडा, उसके न रहने, चले जाने, छूट जाने पर लिखते हुए न उंगलियां कांप रही हैं। न ही मलाल चेहरे पर चस्पां है। उसका चेहरा भी याद नहीं आ रहा। हंसता हुआ चेहरा। दिल्ली की गुमनामी में कैद, कूची और कलम की जादूगरी में लिपटा एक बेहद मासूम चेहरा। अब याद नहीं। उसकी बातें भी भीड भरे शोर में सुनाई नहीं देतीं। हालांकि उन्हें न सुन सकने का अहसास इस जिद से बडा है कि सब कुछ सुनने लायक नहीं है। ईमानदार होने की मूर्खतापूर्ण कोशिश का नौसिखिया अंदाज तो कतई नहीं सुना जाना चाहिए।
न लिखने की कसम नहीं खाई थी, बस वादा किया था। एक तसल्ली है, जो कचोट को कम करती है। फिर भी खलिश है। खुद का लिखा पढने वाले अमूमन इस जिद में जीते हैं, कि यह सबसे बेहतर है, या इस मूर्खता में कि यह तो कुछ भी नहीं और भी बेहतर लिखा जा सकता है- कह नहीं सकता। कोई अनुभव नहीं। खुद का लिखा पढने लायक हौसला भी नहीं। खुद को देखना कायरता है, यह नहीं की जानी चाहिए। दूसरो को देखने में वक्त गुजर जाने दें वही अच्छा है।
आपसे भी कहा था कि
अब नहीं लिखा जाता। पर करें क्या, कहां जाएं? न कुछ और सीखा, न निजाम ने वक्त दिया। बस पढना किसी तरह आ गया और लिखने को मरे जाते हैं सो अब लिखते रहेंगे। उदासी ज्यादा नहीं पर ये गाजियाबाद की ठंड बहुत प्यारी है। लिखने में अब और इसे बरबाद न किया जाए।
हां एक सूचना भी। इंदौर छोड दिया है। या यूं कहें कि साल भर का प्रवास, कई दोस्तियां, बेहतरीन शामें, धूल और मूर्खतापूर्ण खबरों को छोड दिया है। बस दोस्त साथ हैं, उन्हें छोडा नहीं जा सकता न। चिपके रहते हैं जोंक की तरह। अब गाजियाबाद में हूं। कुछ करने नहीं बस अखबारों के साथ कुछ और कदमताल करने के लिए।
तो शब्बा खैर। अब तो मिलते ही रहेंगे। बिना लिखे जीना भी कोई जीना है प्यारे।