बीते दो माह में नोएडा और आसपास के इलाके में जमीन को लेकर जो बेचैनी देखी जा रही है, उसकी परतों को टटोलने पर कुछ दिलचस्प चीजें पता चलती हैं। पूरी दुनिया के खान-पान, आचार-व्यवहार और रहन-सहन के तरीकों को अपनाने की जल्दबाजी में हमने बीते दौर में तेजी से ‘अपार्टमेंट कल्चर’ भी अपनाया। यह एक अच्छा चुनाव था, लेकिन एक तो यह हमने देर से किया, और दूसरे झिझकते हुए। नतीजतन आज नोएडा में किसानों की जमीन का सवाल टप्पल और भट्टा पारसौल से मेल नहीं खाता। यह सवाल नर्मदा घाटी के विस्थापितों और पॉस्को, सिंगूर या फिर सेज की घटनाओं से भी मिलता-जुलता नहीं है। नोएडा का सवाल इनसे जुदा है। इस सवाल के कई उपबंध हैं। नोएडा में जो फ्लैट बुक हुए हैं, उनमें काफी हद तक ब्लैक मनी भी है, तो कई मध्यवर्गीय लोगों की जीवन भर की जमा पूंजी भी यहीं फंसी हुई है। किसानों के साथ हुई धोखेबाजी भी इस सवाल की जद में है और जमीन माफिया और सरकार का गठजोड़ भी अभी सामने आना बाकी है। यह सारे सवाल उस बड़े सवाल के प्रसंग भर हैं, जिनसे अभी भारतीय जनता को जूझना है। और वह सवाल है जमीन की कमी का। इसका जवाब खोजने के लिए भी हमें कुछ तल्ख हकीकतों से रूबरू होना पड़ेगा।
इस वक्त प्रति वर्ग किलोमीटर में रहने वाले औसत भारतीय 368 हैं। इसे हम जनसंख्या घनत्व के रूप में जानते हैं। मौटे तौर पर हर भारतीय को समान जमीन बांट दी जाए, तो हर वर्ग किलोमीटर का हिस्सा 368 भारतीयों के हिस्से में आएगा। यह आंकड़ा तब चौंकाता है, जब पता चलता है कि यह दुनिया के बड़े क्षेत्रफल वाले देशों में सबसे ज्यादा घनत्व है। भारतीय अर्थव्यवस्था जिन अर्थव्यवस्थाओं से लोहा ले रही है, उनसे तुलना करने पर तो यह संख्या और भी भयावह लगती है। रूस (9), कनाडा (3), अमेरिका (32), चीन (140), ब्राजील (23), आॅस्ट्रेलिया (3), सउदी अरब (12), इंडोनेशिया (121), दक्षिण अफीका (40), फ्रांस (114), स्वीडन (21) के अलावा जापान (337) ही जनसंख्या घनत्व के मामले में भारत के आसपास ठहरता है। कहने का अर्थ कि भारत में इस समय जमीन एक बड़ा मसला है। आज भी भारत में रहने के लिए मकानों का इस्तेमाल ज्यादा होता है, बनिस्बत बहुमंजिला इमारतों के। हालांकि बीते 10 सालों में फ्लैट कल्चर बढ़ा है। फ्लैट कल्चर से कई यथास्थितिवादी नाक-भौं सिकौड़ लेते हैं, लेकिन वे यह मानने को तैयार नहीं होते कि भारतीय रहन-सहन की शैली कम होती जमीनों के झगड़े सुलझाने में दिक्कत ही पैदा करती है। ऐसे में जरूरी है कि हम वर्टिकल (लंबवत) विकास की तरफ जाएं।
जमीन के बंटवारे और काम की स्थितियों से इसे जोड़कर देखा जाना चाहिए कि क्यों यूरोप, अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया जैसे देश सीमित संसाधनों के बावजूद अपनी 99 प्रतिशत आबादी को एक जैसा जीवन देने में कामयाब हो जाते हैं, जबकि भारतीय उपमहाद्वीप में 50 प्रतिशत के लिए भी समान जीवनशैली अभी दूर की कौड़ी है? इस सवाल का जवाब आसान है, लेकिन हम इसे पाना नहीं चाहते। या फिर इस जवाब से बचते हैं। राममनोहर लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘लोहिया के विचार’ में लिखा है- ‘जो लोग कई दफे यूरोप की निंदा करने लग जाते हैं, या उनकी इधर-उधर की चीजों को लेकर हंसी उड़ाने लगते हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य के सामाजिक और आर्थिक स्तर को जितना यूरोप ने पहचाना है, उतना दुनिया के और किसी देश ने नहीं पहचाना। (पृष्ठ-68)’
यूरोप के रहन-सहन से हम यह सीख ले सकते हैं कि बड़ी आबादी को कम जमीन पर कैसे बेहतर जीवन मुहैया कराया जा सकता है। हम फ्रांस, इटली, जर्मनी, स्वीडन या ब्रिटेन और स्वीटजरलैंड की बात छोड़ भी दें, तो यूरोप के अपेक्षाकृत कम विकसित देशों में भी जमीन का सवाल हल किया जा चुका है। भारत में बहुत सारे सवालों की देरी के बीच अभी तक जमीन का सवाल भी हल नहीं हो सका है।
इसका बड़ा कारण चयन को लेकर हमारा दोतरफा नजरिया ही वह जड़ है, जो हर बदलाव के साथ और गहरी हो जाती है। समय रहते हमें इस बात को ज्यादा मुस्तैदी से मानना पड़ेगा कि जमीन का सवाल आने वाले दिनों में भारतीय राजनीति के केंद्र में और तीखे ढंग से आएगा। और तब तक आता रहेगा, जब तक कि इसे पूरी तरह से हल नहीं किया जाएगा। यह सवाल उस भारतीय प्रक्रिया से नहीं सुलझने वाला, जिसमें सवालों को लंबे समय तक नासूर बनने के लिए छोड़ दिया जाता है। अच्छी बात है कि यह सवाल दिल्ली के करीब से खड़ा हुआ है, जिससे इसके हल होने के आसार भी बढ़ गए हैं।
बेरोजगारों की लंबी फौज को सिर्फ आइटी के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, जहां एक ही इमारत में हजारों लोग काम कर सकते हैं। आज भी भारत की ज्यादातर श्रमशील आबादी वैश्विक मानदंडों पर खरी नहीं उतरती। ऐसे में जरूरी हो जाता है, कि भारतीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सीमित जमीन पर उत्पादन इकाइयां लगाई जाएं। रहने के लिए घर, काम करने के लिए कारखाने और पोषण के लिए खेत। इन तीनों ही मोर्चों पर भारतीय जनता किन हालात में है, यह किसी से छुपा नहीं है। जमीन की जरूरत तीनों ही स्तरों पर है, और हमारे पास संसाधन के रूप में सीमित विकल्प हैं। ऐसे में यह हमारे नीति नियंताओं पर निर्भर करता है कि वे संघर्ष को बढ़ाना चाहते हैं, या फिर कोई राह निकालकर सभी को घर, नौकरी और सुरक्षित पोषण का विकल्प मुहैया कराया जाता है।
विकल्प की कामयाबी इस बात पर भी निर्भर करेगी कि हम पिछले सभी जमीन सुधारों से कितनी सीख लेते हैं। फ्रांसीसी क्रांति के बाद यूरोप में जमीन वितरण की प्रावधियों का सहारा लेते हैं, या फिर दक्षिण अमेरिका की तरह बड़े खेतों की ओर मुड़ते हैं। साथ ही हमें जल्द से जल्द यह भी तय करना होगा कि जमीन के उपयोग को सीमित किया जाए या फिर इसके खुले दोहन को बढ़ावा दिया जाए।
(27 जुलाई को जनवाणी के संवाद पेज पर प्रकाशित)