उत्सवी आंदोलन की संभावनाएं

अन्ना राजनीति में न आने की दृढ़ इच्छाशक्ति गांधी से ही पाते हैं, और तय है कि वे राजनीतिक जिम्मेदारी नहीं उठाएंगे। साथ ही यह भी तय है कि वे सत्ता के नए केंद्र के रूप में उभर रहे हैं। यदि ऐसा होता है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए- कुछ सवालों के साथ।

जब
आंधी की आशंका हो, हवाएं तेज चल रही हों, आसपास बेचैन कर देने वाली भगदड़ मची हो, तो चेहरों को परखने की जिद पाले बिना माहौल के थमने का इंतजार मुफीद होता है। ऐसे वक्त में पक्ष-विपक्ष की भूमिका से परे आने वाले
बेहतर वक्त की बुनिया के लिए तैयार होना चाहिए। रामलीला मैदान में मैंने जो कुछ देखा, समझा और जाना उसे चार भागों (पक्ष-विपक्ष, संभावना, राजनीतिक हालात और सामाजिक बदलाव) में बांटा जा सकता है। इस समय मची उथल-पुथल के बीच देश में तीन तरह के समूह बन गए हैं। पहला अन्ना के पक्ष में है- अपनी पूरी ऐंद्रिकता के साथ। इस समूह को लगता है कि लोकपाल सभी दुखों की ‘रामबाण दवा’ है। दूसरा हिस्सा, अन्ना के पक्ष में नहीं है, लेकिन उनके खिलाफ भी नहीं है, यह वर्ग सवालों के साथ अन्ना के आंदोलन की खामियों को भी उजागर कर रहा है, जिससे लगता है कि यह खिलाफ है और असल में इसमें कुछ तत्व ऐसे भी हैं, जो विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं। तीसरा हिस्सा, अन्ना के खिलाफ है, इसमें सरकारी पक्ष के अलावा कुछ शीर्ष बुद्धिजीवी और आलोचकों के अलावा देश के विभिन्न हिस्सों में आंदोलनरत समूह भी शामिल हैं।

इन
तीनों समूहों के भीतर कई उपसमूह हैं, जिनमें कई तरह के लोग शामिल हैं। सबसे पहले हम अन्ना के पक्ष में खड़े लोगों को देखें, तो इसमें चार तरह के
उप-संकाय हैं। पहला और निश्चित रूप से बड़ा हिस्सा उन लोगों का है, जो अपने पूरे ‘ईमानदार भोलेपन’ के साथ अन्ना के पक्ष में खड़े हैं। इनके भीतर भी युवाओं की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है, क्योंकि वह अभी व्यवस्था में उस किस्म से शामिल नहीं हुआ है, जिसमें बाकी सब नहाए हुए हैं। जाहिर है, उसका व्यवस्था से शुरुआती संसर्ग ही हुआ है, और इसी वजह से इस हिस्से में बेचैनी भी ज्यादा है। दूसरा हिस्सा उन संगठनों, बुद्धिजीवियों या अन्य लोगों का है, जिन्हें लगता है कि इस आंदोलन में पूरा देश शामिल है और यदि वे इससे नहीं जुड़े या समर्थन नहीं दिया तो ‘अलग-थलग’ पड़ जाएंगे। तीसरा तबका अन्ना को सपोर्ट कर रहे उन लोगों का है, जिन्हें इतनी बड़ी संख्या के साथ अपने राजनीतिक लाभ दिखाई दे रहे हैं। इसके अलावा चौथा वर्ग वह है, जो साथ खड़ा हुआ है और अपने सवालों, इच्छाओं, दुविधाओं को उसने कुछ दिनों के लिए स्थगित कर रखा है। इन सभी वर्गों के उद्देश्य अल हैं, इनकी इच्छाएं भी एक-दूसरे से मेल नहीं खातीं और इन वर्गों के हित भी अलग, बल्कि कई मायनों में तो एक-दूसरे के खिलाफ हैं। यह सभी वर्ग साथ हैं, जिसे हम अब तक ‘आम जनता’ कहते रहे हैं। अगर आम लोगों के एक साथ किसी मुद्दे पर उठ खड़े होने में आप उम्मीद की किरण देखते हैं, तो निश्चित रूप से यह वक्त सकारात्मक और नकारात्मक की परिभाषा से परे बदलाव का है।

दिलचस्प
है कि अन्ना की तुलना महात्मा गांधी से की जा रही है, और हालिया स्थितियां भी करीब-करीब वैसी ही हैं। राजनीतिक रूप से सरकार, अन्ना, जन-विक्षोभ, राजनीतिक दल और देश के अन्य हिस्सों में चल रहे छुटपुट आंदोलन के अलावा हथियारबंद संघर्ष कर रहे समूहों तक का चित्र अंग्रेजी राज के इतिहास की ऊबड़-खाबड़ जमीन तैयार कर रहा है। आंदो
लन के शुरुआती ‘अराजनीतिक वक्तव्यों’ पर ध्यान न दिया जाए, तो हो सकता है कि आने वाले दिनों में एक राजनीतिक विकल्प के रूप में हमें कुछ चेहरे दिखाई देने लगें। आंदोलन कितना भी अराजनीतिक क्यों न हो, वह सत्ता के नए केंद्र बनाता है। अन्ना राजनीति में न आने की दृढ़ इच्छाशक्ति गांधी से ही पाते हैं, और तय है कि वे राजनीतिक जिम्मेदारी नहीं उठाएंगे। साथ ही यह भी तय है कि वे सत्ता के नए केंद्र के रूप में उभर रहे हैं। यदि ऐसा होता है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए- कुछ सवालों के साथ। वे सवाल जेपी आंदोलन की पृष्ठभूमि से भी उठते हैं, जिसमें शामिल युवाओं के प्रतिनिधि के तौर पर जो नेता सामने आए, उन्होंने ‘भारतीय राजनीति के गर्त’ को गहरा ही किया है। संभावना यह भी है कि जन-लोकपाल पारित होने के बाद लामबंद जनता दूसरी मांगों की तरफ बढ़े जिन जन-संगठनों का साथ इस वक्त अन्ना को मिल रहा है, उनकी मांगों की लिस्ट देखने से आंदोलन के दूसरे हिस्से में प्रवेश के साथ ही घर्षण की प्रबल आशंकाएं हैं, क्योंकि एक-दूसरे के धुर-विरोधी संगठन भी इस वक्त अन्ना के साथ हैं। फिलवक्त इसके अलावा जन-लोकपाल की प्रक्रिया को सही ढंग से लागू कराने के सवाल भी नई संभावनाओं को हवा दे रहे हैं। यह सभी कयास हैं और हकीकतन बीज रूप में हैं, जिनका वृक्ष बनना इस पर निर्भर है कि जनता इन्हें आबोहवा और राजनीतिक खाद-पानी कैसे मुहैया कराती है।

जो
लोग सड़कों पर हैं, उनकी उम्मीद कैसे पूरी होती है, जन-लोकपाल कितना प्रभावी होगा, इस पर बहुत कुछ निर्भर है। जन-लोकपा
के बाद भी स्थितियों में बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ, तो फिर विक्षोभ फैलेगा, जो बड़े आंदोलन की नींव भी बन सकता है, और यथास्थितिवाद की ओर भी मुड़ सकता है। जेपी आंदोलन के बाद के 10 साल और राम-मंदिर के नारे के धीमा होने के बाद आई राजनीतिक अस्थिरता इसके पूर्व-सूत्र हैं। आंदोलन पर ‘बड़ी जिम्मेदारी’ अभी नहीं है, और यह जन-लोकपाल पारित होने के बाद आयद होगी। दिक्कत यहीं से शुरू होती है। इस बारे में राजनीतिक हलकों से लेकर देश भर के अन्ना समर्थक संगठनों तक में चुप्पी है। टीम अन्ना साफ कर चुकी है कि वह ‘आम जनता’ बनकर राजनीतिक सवाल ही उठाएगी। लोकतंत्र में सवाल उठाना जरूरी है, लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है विकल्प देना और यहीं टीम अन्ना ‘अंधेरा’ फैलाती है। यह अंधेरा सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि ‘लोकतांत्रिक बहस बनाम जिद’ का भी है। बीते शनिवार को अन्ना ने बातचीत के रास्ते खुले होने की बात कही थी और साथ ही यह भी कहा था कि जन-लोकपाल से कम पर वे राजी नहीं होंगे। अगर अन्ना लंबी लड़ाई की तरफ देख रहे हैं, तो बातचीत का यह ढंग मुश्किलें खड़ी कर सकता है। नतीजे पूर्व-निर्धारित करना अन्ना की ‘संदिग्ध लोकतांत्रिक आस्थाओं’ के पेंचों को घिसने के ही काम आएगा।

यह
परिस्थितियां हमें किस रास्ते पर ले जाएंगी, यह भविष्य के गर्भ में है। उम्मीद है 31 अगस्त के बाद विभिन्न स्तरों पर फैली राजनीतिक अस्थिरता और असमंजस का अंत होगा और भविष्य वह किरणें फेंकेगा, जिनकी रोशनी में जनता आगे का रास्ता देख पाएगी। अगर ऐसा होता है, तो अन्ना का आंदोलन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में मुश्किल राजनीति
वक्त में जनता को एकजुट करने की ‘फौरी कोशिश’ के रूप में याद किया जाएगा, तब तक इस एकजुटता को सुखद राजनीतिक विकल्प की ‘नासमझ कोशिश’ ही माना जाएगा, जिसमें जरूरत से ज्यादा जन-ऊर्जा खर्च हो रही है।
(जनवाणी में 24 अगस्त को प्रकाशित)

भविष्य’ गढ़ने को तैयार विद्रोही युवा
दिल की धड़कन पर शरीर की थाप निर्भर करती है, और दिल्ली को देश का दिल मानें, तो कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि पूरा देश एक ही थाप पर धड़क रहा है। दिल की हलचल ऐसी ही होती है। रामलीला मैदान में बीते दो दिनों में राजनीतिक चालों, बदलाव के नारों, भीड़ के गुस्से और हाथ से हाथ मिलने की तदबीरों के प्रतिनिधि पल शामिल थे।

शनिवार
को गुडगांव के बीपीओज के करीब 40 प्रतिशत युवा छुट्टी पर थे और एक साथ इतनी संख्या में ली गई छुट्टी का निहितार्थ आसानी से समझा जा सकता है। वे सभी रामलीला ग्राउंड में थे। एक कॉलसेंटर में काम करने वाले विपिन के करीब पहुंचकर मैंने हाथ हिलाया, तो उसने इशारे से करीब बैठने को कहा। वह अपने लैपटॉप पर फेसबुक स्टेट्स अपडेट कर रहा था। यह रामलीला मैदान का आम दृश्य है। लैपटॉप से लेकर मोबाइल पर तक खबरों, योजनाओं और नारों के साथ उलझे हुए विचारों का आदान-प्रदान जारी है। सवालों और गुस्से की अभिव्यक्ति फेसबुक स्टेट्स यूं आई- ‘स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई नहीं होती, नौकरी के लिए बायोडेटा भेजते जाओ। इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर बीपीओ में ......., जय कांग्रेसी राज।’ समझा जा सकता है कि एक ईमानदार गुस्से की नजाकत में कितनी साफगोई हो सकती है। यह अन्ना के आंदोलन में शामिल युवा है। सपनों के भोलेपन की आड़ में विद्रोह की मौखिक अभिव्यक्ति में पहुंच चुका युवा। इसे अकेला रहना ही पसंद। दोस्तों के साथ शामें, लंबी रातों में जागना और भविष्य के सपने देखना, जिनके जस-का-तस पूरा नहीं होने पर वह बेचैन है। यही बेचैनी दिल्ली के नौकरीपेशा युवा और छात्रों को रामलीला मैदान खींच रही है। जहां उम्मीद की लौ जल रही है।

युवाओं
से बातचीत में पता चला है कि ज्यादातर दिल्ली में प्रवासी हैं और छह-आठ महीने से अपने घर, जो बिहार से लेकर आंध्रप्रदेश और गोरखपुर से लेकर पट्टाभेरी तक फैले हैं, नहीं गए। 16 घंटे की नौकरी उन्हें इतना वक्त मुहैया नहीं कराती। रामलीला मैदान में इसके अलावा बड़ी संख्या विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली युवाओं की भी है। इन्हें ‘बोरिंग’ क्लास में जाना यूं भी पसंद नहीं और अन्ना का आंदोलन उन्हें भरोसा देता है कि ‘अगर सफल हुए तो सब ठीक हो जाएगा। नहीं भी हुआ तो एक कोशिश करने का संतोष जीवन का जरूर र्इंधन जुटा देगा’। इस युवा पीढ़ी के सामने अपने चमकीले कॅरियर का भरपूरा चित्र है, जिसे वह भ्रष्टाचार की कालिख से बदरंग नहीं होने देना चाहती। जेपी मूवमेंट की असफलता, आरक्षण आंदोलन की अराजकता और राम-मंदिर नारे के बाद युवा फिर एक साथ हैं, इस सवाल के साथ कि अब बिखरे तो कहां मिलेंगे?

(जनवाणी में 23 अगस्त को प्रकाशित)