भारतीय समाज में कामयाबी को उत्साही ढंग से मनाने का रिवाज रहा है। हाल ही में आए सीबीएसई और विभिन्न बोर्ड्स के नतीजों में भी यह पारंपरिक उत्साह कम नहीं पड़ा है। अखबारों में पासपोर्ट साइज में होनहारों की कामयाबी को जश्न की तरह मनाया, बताया और दिखाया गया है। इसके आर्थिक पहलू भी हैं, लेकिन इससे ज्यादा यह सामाजिक अवधारणा के करीब है। रिजल्ट का आकलन करते हुए सबसे ज्यादा जोर इस बात पर रहता है कि प्रतिशत के रूप में सबसे कामयाब चेहरा ढूंढ लिया जाए। पूरी दुनिया में स्कूली सफलता की अंकीय कामयाबी पर संशय किया जा रहा हैं, ऐसे में भारतीय समाज खासकर मध्यवर्ग का अधिक प्रतिशत पर पीठ थपथपाने का चलन कम पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है। कामयाबी के छोटे से छोटे चेहरे को दमकते देखने की तीव्र आकांक्षा इसे बढ़ावा देती है। साथ ही दौड़ का गणित इसे वह जरूरी र्इंधन मुहैया कराता है, जिसमें से अपने ‘लाडले’ को कई अन्य से आगे खड़ा देखने की हसरत पूरी हो पाती है।
प्रतिशत की यह लड़ाई और हालिया रिजल्ट का आकलन साफ करता है कि स्कूली शिक्षा के प्राप्तांक असल में भारतीय जीवन का भी आईना हैं। मोटे तौर पर 80 प्रतिशत बच्चे अपने स्कूल जीवन के आखिरी समय में आगे बढ़ गए हैं, और 20 प्रतिशत ठिठक गए हैं। यहां प्रतिशत को अमीरी और गरीबी के आंकड़ों से जोड़कर देखने से कुछ जरूरी तथ्य सामने आते हैं। भारत में सबसे गरीब लोगों का आंकड़ा भी करीब 20 प्रतिशत के आसपास ही बैठता है, तो क्या स्कूली शिक्षा के मानसिक द्वंद्व गरीबी के अर्थशास्त्र के साथ किसी किस्म का साम्य बनाते हैं? इसी क्रम में यह भी देखना चाहिए कि 40 से 70 प्रतिशत तक के ‘औसत’ प्राप्तांक हासिल करने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है, जो भारतीय मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देते हैं। इस तरह भारतीय रेल की ही तरह भारतीय स्कूली शिक्षा के प्राप्तांक सामाजिक जीवन की एक भरी-पूरी तस्वीर मुहैया कराते हैं।
मामला महज इतना ही नहीं है। लाखों की तादाद में 10वीं और 12वीं की परीक्षा पास करने वाले छात्र-छात्राएं पढ़ाई के दूसरे पड़ाव यानी ग्रेजूएशन में कम हो जाते हैं। दिलचस्प यह भी है कि क्यों 10वीं और 12वीं अव्वल रहने वाली छात्राएं कॉलेज स्तरीय पढ़ाई में लड़कों से पिछड़ जाती हैं? इस महत्वपूर्ण सवाल का जवाब संभवत: हर किसी को पता है, बस इसके खात्मे के प्रयासों में लगातार आनाकानी की जा रही है। कॉलेज के माहौल में प्रवेश करते ही छात्र-छात्राओं की प्राथमिकताएं भी बदलने लगती हैं, और वे समाजसेवा, बराबरी के बजाय कॅरियर और किसी भी तरह आगे बढ़ने की होड़ में परिवर्तित हो जाती हैं।
एक और भयानक रूप से खतरनाक बात इन रिजल्ट के आने पर अलग से नुमायां की जाती है। वह है गरीबी रेखा के आसपास बसर करने वाले किसी छात्र की सफलता को इस नजर से देखना कि भारतीय समाज में मेहनत करने पर कोई भी सफलता हासिल कर सकता है। जबकि यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जहां मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय मामलों में सफलता का प्रतिशत 80 और 90 प्रतिशत तक है, वहीं गरीब बच्चों की सफलता मुश्किल से 30-40 प्रतिशत पार कर पाती है। जाहिर है कि आर्थिक स्थिति स्कूली सफलता में महत्वपूर्ण कारक होती है, खासकर टॉपर्स के मामले में तो यह अलिखित नियम की तरह है, जिसमें अपवाद स्वरूप कोई गरीब बच्चा 80 प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त कर लेता है, तो उसका ऐसा ढिंढोरा पीटा जाता है, जैसे यह भारतीय समाज का सामान्य नियम हो। असल में उदाहरण गलत निष्कर्ष पर पहुंचाते हैं और गरीब-दलितों की सफलता को ऐसे ही उदाहरण बनाकर सरकार से लेकर समाज तक उस जिम्मेदारी और बेईमानी से मुंह मोड़ लेते हैं, जो बरसों से जारी है।
स्कूली शिक्षा में अधिकतम अंक हासिल करने वाले बच्चे 10 साल बाद जब नागरिक समाज में शामिल होंगे, तब स्थिति क्या होती है, इसका आकलन में बहुत अच्छी तस्वीर नहीं बनाता है। जो बच्चे अभी उत्तीर्ण हुए हैं, उन्होंने अभी बस एक पड़ाव ही पार किया है। स्नातक, उच्च शिक्षा और फिर बेरोजगारी की सड़क पर होने वाली लड़ाई में यह तय है कि बहुत कम ही अपनी ‘अंकीय कामयाबी’ को बरकरार रख पाएंगे। इस लंबी लड़ाई में जिनके पास संसाधन और अन्य मामलों में बेहतर औजार होंगे, वे ही टिक पाएंगे, यह सच्चाई है। इसीलिए हम देख पाते हैं कि जिन बच्चों ने अपने स्कूली जीवन को औसत ढंग से बिताया है, वे आज कई नए कीर्तिमान हासिल कर रहे हैं, क्योंकि उनके पास ‘खास’ आर्थिक और सामाजिक औजार थे।
स्कूली शिक्षा की एक बड़ी खामी यह भी है कि अधिक प्राप्तांक का अर्थ जीवन में अधिकतम सफलता नहीं रह गया है। क्या जीवन, कॅरियर और स्कूली जीवन की सफलता में साम्य न होना भारतीय समाज की बड़ी खामी की तरफ इशारा नहीं करता है? इसकी एक बड़ी वजह यह भी हो सकती है कि हमने अब तक जनसंख्या के लिहाज से जरूरी शैक्षणिक ढांचा तैयार नहीं किया है। स्कूलों में बड़ी-बड़ी क्लासेज अब पारंपरिक बहस का मुद्दा हो चुकी हैं, और कॉलेजों में दाखिले मिलना ही अपने आप में एक जरूरी जंग की तरह है। यानी बच्चा अभी 12वीं की परीक्षा के प्राप्तांकों के ‘मायालोक’ से बाहर भी नहीं निकला होता है कि उसे तीन से पांच कॉलेज के फॉर्म की तलाश और फिर इंतजार से मुठभेड़ करनी होती है। सरकारी कॉलेजों की संख्या में गिरावट और निजी कॉलेजों की बढ़ती फीस अपने आप में समस्या हैं।
इस तरह पूरे शिक्षा क्षेत्र में सवाल और समस्याओं की लंबी फेहरिस्त है। ऐसे में ‘लाड़लों’ के प्राप्तांक ही वह हल्की मौसमी बौछार होते हैं, जिनसे तपती धूप में सकून के क्षण तलाश किए जा सकते हैं। इस बिंदू पर आकर बोर्ड या सीबीएससी परीक्षा पास करने के बाद उछलते हुए बच्चों के चित्र देखना सुखकर तो लग सकता है, लेकिन एक मार्मिक दुखांत की तरफ भी इशारा करता है। इस दुखांत के अंत में कामयाब जीवन की तंग होती गलियां हैं, जिनमें प्रवेश के लिए धक्का-मुक्की अब छोटा शब्द रह गया है। यह लगभग तोड़ देने और हलाक करने वाली लड़ाई है, जिसमें, जैसा पहले ही कहा है कि जरूरी सामाजिक-आर्थिक औजारों के बिना पहुंचने वालों का पिछड़ना तय है। क्या भारतीय शासक और नीति निर्धारित करने वाला तबका इस तीखी लड़ाई को देख रहा है? यकीनन हां, और उनमें से एक बड़ा हिस्सा इससे गुजर भी चुका है, लेकिन वह वर्ग लड़ाई जीतकर वहां तक पहुंचा है, इसलिए उसमें ताकतवर होने का दंभ भी है, और रिरियाती-चीखती ‘बाल आबादी’ के प्रति वितृष्णा भी। इसलिए इस लंबी बहस में आने वाले वर्षों में कोई खास बदलाव या नए तथ्य जुड़ने के आसार नहीं दिखते। तब तक तो खासतौर पर नहीं, जब तक कि जीतने वाले अपने पीछे छूटे साथियों की सुध नहीं लेते। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक सवाल नए सिरे से खड़े होते रहेंगे और रिजल्ट का रूपक अपनी सामाजिक चिंताओं के साथ डराता रहेगा।
(सात जून 2012 को जनवाणी में प्रकाशित)
प्रतिशत की यह लड़ाई और हालिया रिजल्ट का आकलन साफ करता है कि स्कूली शिक्षा के प्राप्तांक असल में भारतीय जीवन का भी आईना हैं। मोटे तौर पर 80 प्रतिशत बच्चे अपने स्कूल जीवन के आखिरी समय में आगे बढ़ गए हैं, और 20 प्रतिशत ठिठक गए हैं। यहां प्रतिशत को अमीरी और गरीबी के आंकड़ों से जोड़कर देखने से कुछ जरूरी तथ्य सामने आते हैं। भारत में सबसे गरीब लोगों का आंकड़ा भी करीब 20 प्रतिशत के आसपास ही बैठता है, तो क्या स्कूली शिक्षा के मानसिक द्वंद्व गरीबी के अर्थशास्त्र के साथ किसी किस्म का साम्य बनाते हैं? इसी क्रम में यह भी देखना चाहिए कि 40 से 70 प्रतिशत तक के ‘औसत’ प्राप्तांक हासिल करने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है, जो भारतीय मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देते हैं। इस तरह भारतीय रेल की ही तरह भारतीय स्कूली शिक्षा के प्राप्तांक सामाजिक जीवन की एक भरी-पूरी तस्वीर मुहैया कराते हैं।
मामला महज इतना ही नहीं है। लाखों की तादाद में 10वीं और 12वीं की परीक्षा पास करने वाले छात्र-छात्राएं पढ़ाई के दूसरे पड़ाव यानी ग्रेजूएशन में कम हो जाते हैं। दिलचस्प यह भी है कि क्यों 10वीं और 12वीं अव्वल रहने वाली छात्राएं कॉलेज स्तरीय पढ़ाई में लड़कों से पिछड़ जाती हैं? इस महत्वपूर्ण सवाल का जवाब संभवत: हर किसी को पता है, बस इसके खात्मे के प्रयासों में लगातार आनाकानी की जा रही है। कॉलेज के माहौल में प्रवेश करते ही छात्र-छात्राओं की प्राथमिकताएं भी बदलने लगती हैं, और वे समाजसेवा, बराबरी के बजाय कॅरियर और किसी भी तरह आगे बढ़ने की होड़ में परिवर्तित हो जाती हैं।
एक और भयानक रूप से खतरनाक बात इन रिजल्ट के आने पर अलग से नुमायां की जाती है। वह है गरीबी रेखा के आसपास बसर करने वाले किसी छात्र की सफलता को इस नजर से देखना कि भारतीय समाज में मेहनत करने पर कोई भी सफलता हासिल कर सकता है। जबकि यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जहां मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय मामलों में सफलता का प्रतिशत 80 और 90 प्रतिशत तक है, वहीं गरीब बच्चों की सफलता मुश्किल से 30-40 प्रतिशत पार कर पाती है। जाहिर है कि आर्थिक स्थिति स्कूली सफलता में महत्वपूर्ण कारक होती है, खासकर टॉपर्स के मामले में तो यह अलिखित नियम की तरह है, जिसमें अपवाद स्वरूप कोई गरीब बच्चा 80 प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त कर लेता है, तो उसका ऐसा ढिंढोरा पीटा जाता है, जैसे यह भारतीय समाज का सामान्य नियम हो। असल में उदाहरण गलत निष्कर्ष पर पहुंचाते हैं और गरीब-दलितों की सफलता को ऐसे ही उदाहरण बनाकर सरकार से लेकर समाज तक उस जिम्मेदारी और बेईमानी से मुंह मोड़ लेते हैं, जो बरसों से जारी है।
स्कूली शिक्षा में अधिकतम अंक हासिल करने वाले बच्चे 10 साल बाद जब नागरिक समाज में शामिल होंगे, तब स्थिति क्या होती है, इसका आकलन में बहुत अच्छी तस्वीर नहीं बनाता है। जो बच्चे अभी उत्तीर्ण हुए हैं, उन्होंने अभी बस एक पड़ाव ही पार किया है। स्नातक, उच्च शिक्षा और फिर बेरोजगारी की सड़क पर होने वाली लड़ाई में यह तय है कि बहुत कम ही अपनी ‘अंकीय कामयाबी’ को बरकरार रख पाएंगे। इस लंबी लड़ाई में जिनके पास संसाधन और अन्य मामलों में बेहतर औजार होंगे, वे ही टिक पाएंगे, यह सच्चाई है। इसीलिए हम देख पाते हैं कि जिन बच्चों ने अपने स्कूली जीवन को औसत ढंग से बिताया है, वे आज कई नए कीर्तिमान हासिल कर रहे हैं, क्योंकि उनके पास ‘खास’ आर्थिक और सामाजिक औजार थे।
स्कूली शिक्षा की एक बड़ी खामी यह भी है कि अधिक प्राप्तांक का अर्थ जीवन में अधिकतम सफलता नहीं रह गया है। क्या जीवन, कॅरियर और स्कूली जीवन की सफलता में साम्य न होना भारतीय समाज की बड़ी खामी की तरफ इशारा नहीं करता है? इसकी एक बड़ी वजह यह भी हो सकती है कि हमने अब तक जनसंख्या के लिहाज से जरूरी शैक्षणिक ढांचा तैयार नहीं किया है। स्कूलों में बड़ी-बड़ी क्लासेज अब पारंपरिक बहस का मुद्दा हो चुकी हैं, और कॉलेजों में दाखिले मिलना ही अपने आप में एक जरूरी जंग की तरह है। यानी बच्चा अभी 12वीं की परीक्षा के प्राप्तांकों के ‘मायालोक’ से बाहर भी नहीं निकला होता है कि उसे तीन से पांच कॉलेज के फॉर्म की तलाश और फिर इंतजार से मुठभेड़ करनी होती है। सरकारी कॉलेजों की संख्या में गिरावट और निजी कॉलेजों की बढ़ती फीस अपने आप में समस्या हैं।
इस तरह पूरे शिक्षा क्षेत्र में सवाल और समस्याओं की लंबी फेहरिस्त है। ऐसे में ‘लाड़लों’ के प्राप्तांक ही वह हल्की मौसमी बौछार होते हैं, जिनसे तपती धूप में सकून के क्षण तलाश किए जा सकते हैं। इस बिंदू पर आकर बोर्ड या सीबीएससी परीक्षा पास करने के बाद उछलते हुए बच्चों के चित्र देखना सुखकर तो लग सकता है, लेकिन एक मार्मिक दुखांत की तरफ भी इशारा करता है। इस दुखांत के अंत में कामयाब जीवन की तंग होती गलियां हैं, जिनमें प्रवेश के लिए धक्का-मुक्की अब छोटा शब्द रह गया है। यह लगभग तोड़ देने और हलाक करने वाली लड़ाई है, जिसमें, जैसा पहले ही कहा है कि जरूरी सामाजिक-आर्थिक औजारों के बिना पहुंचने वालों का पिछड़ना तय है। क्या भारतीय शासक और नीति निर्धारित करने वाला तबका इस तीखी लड़ाई को देख रहा है? यकीनन हां, और उनमें से एक बड़ा हिस्सा इससे गुजर भी चुका है, लेकिन वह वर्ग लड़ाई जीतकर वहां तक पहुंचा है, इसलिए उसमें ताकतवर होने का दंभ भी है, और रिरियाती-चीखती ‘बाल आबादी’ के प्रति वितृष्णा भी। इसलिए इस लंबी बहस में आने वाले वर्षों में कोई खास बदलाव या नए तथ्य जुड़ने के आसार नहीं दिखते। तब तक तो खासतौर पर नहीं, जब तक कि जीतने वाले अपने पीछे छूटे साथियों की सुध नहीं लेते। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक सवाल नए सिरे से खड़े होते रहेंगे और रिजल्ट का रूपक अपनी सामाजिक चिंताओं के साथ डराता रहेगा।
(सात जून 2012 को जनवाणी में प्रकाशित)