आपातकाल पर जनवाणी का विशेष पेज |
37 साल पहले देश पर जो आपातकाल थोपा गया था, उसकी यादें आज भी सताती हैं। यकीनन बुरा दौर था। ऐसा दौर, जिसकी याद ही रीढ़ में सिरहन पैदा कर देती है। जिन्होंने आपातकाल की ज्यादतियां झेली थीं, उनके जेहन में वे यादें ताजा हैं। आजादी के बाद हिंदुस्तान की आवाम ने पहली बार गुलामी सरीखा अनुभव किया था और दिलचस्प यह कि पूरे देश को एकसूत्र में पिरो दिया था। जयप्रकाश नारायण के पीछे देश चल रहा था। आजादी के बाद जनआंदोलन की धड़कन पहली बार देश महसूस कर रहा था। हालांकि लोकतंत्र ज्यादा दिन तक बंधक नहीं रहा और मात्र 19 महीने बाद देश की जनता ने एक बार फिर वोट के इस्तेमाल से आपातकाल लगाने वाली इंदिरा गांधी की कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया था। यह जनता के आकांक्षाओं की घोषित अभिव्यक्ति थी। भारी बहुमत से सत्ता में आई जनता पार्टी में आपसी मतभेद सतह पर आए, तब भी इसी आवाम ने सबक सिखाया और फिर इंदिरा गांधी को सत्ता सौंप दी। 37 साल का वक्त कम नहीं होता। इसके बाद किसी राजनीतिक दल की हिम्मत नागरिक अधिकार कुचलने की नहीं हुई। हमारे लोकतंत्र की यही खूबी पूरी दुनिया को भाती है। आज लोकतंत्र पर नए सिरे से नए सवालों के साथ बहस जारी है। स्वस्थ लोकतंत्र के पानी के लिए बदलाव और बहाव जरूरी होते हैं। इससे जड़ों में ताजा पानी जाता रहता है और वे नई कोंपलों के साथ लोकतांत्रिक धरती को हरा-भरा रखती हैं। हालांकि इस बीच लोकतंत्र पर धनतंत्र हावी हुआ है, वह चिंताजनक है। आज हालात कहीं से भी अच्छे नहीं हैं। महंगाई बढ़ रही है। रुपया रसातल में जा रहा है। भ्रष्टाचार को सामाजिक मान्यता मिलती नजर आ रही है। विपक्ष की बैंच तकरीबन खाली दिखाई देती है। विपक्ष का अर्थ है जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करना। बौने कद के राजनीतिक माहौल में यह मुमकिन नहीं दिखता। ऐसे में आवाम से ही उम्मीद की जा सकती है। वह अपना फर्ज निभाएगी और सत्ता के गलियारों में चलने की इजाजत उन्हीं चेहरों को देगी, जिन्में जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने का माद्दा होगा। दरअसल, देश में अब जेपी सरीखे आंदोलन न हो, इसके पुख्ता इंतजाम राजनीतिक दलों ने कर दिए हैं। राजनीतिक दलों ने जनता को धर्म और जातियों के इतने खांचों में बांट दिया है कि वह चाहकर भी बाहर नहीं निकल पाती है। एक हिस्से से कशमकश शुरू होती है, दूसरे में कंपन होने लगता है, और लगता है कि पूरा ताना-बाना टूट जाएगा। इसी टूटन का भय दिखाकर सत्ता फिर अपनी ताकत बढ़ा लेती है। देश में कोई ‘जेपी’ न उभर पाए, इसके लिए सत्ता पूरी तैयारी कर चुकी है। सत्ता को सड़क पर उतरी आवाम से डर लगता है। आपातकाल के 37 साल बाद यह विचार करने की जरूरत है कि क्या जनता का काम सिर्फ आपातकाल झेलना ही है? या फिर सरकार अपना काम भूल जाए, तो जनता भी अपनी ओर से सरकार पर आपातकाल लगा सकती है?