-सचिन श्रीवास्तव
बीएचयू सुलग रहा है। यह प्रधानमंत्री की अपनी जमीन है और सियासत में संकेतों का अपना महत्व होता है। हालांकि इन संकेतों के जल्दबाजी में निकाले गए निष्कर्ष आपको गलत नतीजों पर पहुंचा सकते हैं। राजनीति और समाज के गंभीर दर्शक जानते हैं कि भविष्य की राह आर्थिक गलियारों से ही निकलेगी। और इस वक्त देश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, यह किसी से छिपा नहीं है। आर्थिक नब्ज के जानकार जानते होंगे कि कहां पेंच है, आम लोगों के लिए देश के सबसे बड़े "आर्थिक डॉक्टर" से ही उम्मीदें हैं। कम से कम दो साल तक तो और। जाहिर है कि समाज की यह बेबसी उतना बड़ा संकेत नहीं है, जो प्रधानमंत्री की पुरानी जमीन और जहां उनकी जड़ें हैं, वहां से मिल रहा है। यानी गुजरात से।
असल में, गौरी लंकेश, डोकलाम, राम रहीम और गौरक्षा, ट्रिपल तलाक जैसे मुद्दों के बीच सियासी गलियारों की हरकतें नजरअंदाज होती रही हैं, जो लंबे समय से कई बड़े संकेत दे रही हैं। इनमें सबसे अहम था मंत्रिमंडल विस्तार। इस विस्तार की जो खबरें मीडिया पर चलीं वे भाजपाई मीडिया सेल से निकली थीं और इनमें बदली भूमिकाओं के चरित्र चित्रण की खामोशी के अलावा बहुत गहराई नहीं थी।
गौर से देखिए तो सरकार और भाजपा संगठन में जिस एक व्यक्ति का कद तेजी से बहुत बढ़ा है, वह अरुण जेटली हैं। कहा भी जाता है कि मोदी मंत्रिमंडल में कद्दावर नेताओं की कमी नहीं है, लेकिन सत्ता पर सबसे ज्यादा पकड़ जेटली की ही है। यानी संगठन में अगर शाह-मोदी की जोड़ी सब पर भारी है, तो सरकार में जेटली-मोदी का साथ सबसे मजबूत है। लेकिन दो जोडिय़ों के इन तीन चेहरों के बीच क्या और किस तरह के रिश्ते हैं, इस पर न तो खबरें आती हैं, न विश्लेषण। गाहे-बगाहे सत्ता के गलियारों में चल रही हलचलों के बीच जिक्र भर होता है और यही जिक्र खबरों से बड़ा बन जाता है।
करीब चार महीने पहले जो अरुण जेटली बुझे-बुझे दिख रहे थे तब उनके विश्वस्त चेहरे मंत्रिमंडल में ऊंचाई पर पहुंचे। इनमें पहला नाम था हरदीप सिंह पुरी का है, जिनकी जेटली से डेढ़ दशक पुरानी दोस्ती किसी से छिपी नहीं है। उन्हें जिम्मा मिला शहरी विकास मंत्रालय का। यानी मोदी सरकार की स्मार्ट सिटी योजना की खूबियों को वोटों में तब्दील करना पुरी के हिस्से आया है। जेटली रक्षा मंत्रालय छोडऩा चाहते थे, यह तो सभी को पता है, लेकिन कैसे यह मंत्रालय उन्हीं निर्मला सीतारमण को मिला, जिन्हें पहली बार मंत्रिमंडल में शामिल करने के पैरोकार भी अरुण जेटली ही थे। सत्ता के गलियारों में चर्चा यह भी है कि पीयूष गोयल को रेल मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपने से पहले मोदी को जेटली ने महत्वपूर्ण राय दी। इसी तरह धर्मेंद्र प्रधान का प्रमोशन भी जेटली ने ही कराया।
लेकिन यह सब कुछ इतना सीधा नहीं था। 2014 की कैबिनेट में निर्मला, गोयल और प्रधान जेटली के करीबी थे। लेकिन चुनावी जीतों के बाद अमित शाह का कद तेजी से बढ़ा, तो गोयल और प्रधान शाह के ज्यादा करीब पहुंचे। हालिया मंत्रिमंडल विस्तार के बाद ये समीकरण फिर पुराने हालात में लौट आए हैं। यानी जेटली मजबूत हुए और शाह को भाजपा की भीतरी राजनीति में मात तो नहीं, लेकिन मुश्किल होने लगी है।
बात यही नहीं रुकती। गुजरात में चुनाव होने हैं और यह भाजपा की केंद्रीय राजनीति के लिए सबसे अहम प्रदेश है। भाजपा किसी भी कीमत पर इस किले को खोना नहीं चाहती। ऐसे में प्रधानमंत्री और खुद शाह की मौजूदगी के बावजूद जेटली को गुजरात की जिम्मेदारी सौंपी गई है। उन्हें यहां प्रभारी बनाया गया है। आमतौर पर बड़े नेताओं के प्रदेश में किसी दूसरी या तीसरी पंक्ति के नेता को प्रभार सौंपा जाता है, लेकिन यहां उलटा हुआ है। इस नियुक्ति में पेंच भी है। सियासी गलियारों की हवाएं बता रही हैं कि जेटली को प्रभारी प्रधानमंत्री ने ही बनाया है, न कि पार्टी अध्यक्ष ने। यहां भाजपा की दो सबसे चर्चित जोडिय़ों के तीनों चेहरों एक साथ मौजूद हैं। इसलिए अंदाजा लगाइये कि पार्टी के लिए गुजरात विधानसभा का मतलब क्या है। और फिर गुजरात को करीब से जानने वाले जानते हैं कि यहां आनंदीबेन पटेल और अमित शाह के बीच कैसे रिश्ते हैं।
तो कुल मिलाकर, विपक्षी हमलों और सामाजिक आंदोलनों के बीच आर्थिक मुश्किलों से जूझती जनता के भविष्य का फैसला तो तीन ही लोग कर रहे हैं और उनके बीच के समीकरण हर रोज नया रंग ले रहे हैं। इन समीकरणों का हासिल अगले तीन चार महीनों में सामने आ जाएगा। इतंजार कीजिए और खबरों के भीतर छुपी परतों को समझते रहिए...
बीएचयू सुलग रहा है। यह प्रधानमंत्री की अपनी जमीन है और सियासत में संकेतों का अपना महत्व होता है। हालांकि इन संकेतों के जल्दबाजी में निकाले गए निष्कर्ष आपको गलत नतीजों पर पहुंचा सकते हैं। राजनीति और समाज के गंभीर दर्शक जानते हैं कि भविष्य की राह आर्थिक गलियारों से ही निकलेगी। और इस वक्त देश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, यह किसी से छिपा नहीं है। आर्थिक नब्ज के जानकार जानते होंगे कि कहां पेंच है, आम लोगों के लिए देश के सबसे बड़े "आर्थिक डॉक्टर" से ही उम्मीदें हैं। कम से कम दो साल तक तो और। जाहिर है कि समाज की यह बेबसी उतना बड़ा संकेत नहीं है, जो प्रधानमंत्री की पुरानी जमीन और जहां उनकी जड़ें हैं, वहां से मिल रहा है। यानी गुजरात से।
असल में, गौरी लंकेश, डोकलाम, राम रहीम और गौरक्षा, ट्रिपल तलाक जैसे मुद्दों के बीच सियासी गलियारों की हरकतें नजरअंदाज होती रही हैं, जो लंबे समय से कई बड़े संकेत दे रही हैं। इनमें सबसे अहम था मंत्रिमंडल विस्तार। इस विस्तार की जो खबरें मीडिया पर चलीं वे भाजपाई मीडिया सेल से निकली थीं और इनमें बदली भूमिकाओं के चरित्र चित्रण की खामोशी के अलावा बहुत गहराई नहीं थी।
गौर से देखिए तो सरकार और भाजपा संगठन में जिस एक व्यक्ति का कद तेजी से बहुत बढ़ा है, वह अरुण जेटली हैं। कहा भी जाता है कि मोदी मंत्रिमंडल में कद्दावर नेताओं की कमी नहीं है, लेकिन सत्ता पर सबसे ज्यादा पकड़ जेटली की ही है। यानी संगठन में अगर शाह-मोदी की जोड़ी सब पर भारी है, तो सरकार में जेटली-मोदी का साथ सबसे मजबूत है। लेकिन दो जोडिय़ों के इन तीन चेहरों के बीच क्या और किस तरह के रिश्ते हैं, इस पर न तो खबरें आती हैं, न विश्लेषण। गाहे-बगाहे सत्ता के गलियारों में चल रही हलचलों के बीच जिक्र भर होता है और यही जिक्र खबरों से बड़ा बन जाता है।
करीब चार महीने पहले जो अरुण जेटली बुझे-बुझे दिख रहे थे तब उनके विश्वस्त चेहरे मंत्रिमंडल में ऊंचाई पर पहुंचे। इनमें पहला नाम था हरदीप सिंह पुरी का है, जिनकी जेटली से डेढ़ दशक पुरानी दोस्ती किसी से छिपी नहीं है। उन्हें जिम्मा मिला शहरी विकास मंत्रालय का। यानी मोदी सरकार की स्मार्ट सिटी योजना की खूबियों को वोटों में तब्दील करना पुरी के हिस्से आया है। जेटली रक्षा मंत्रालय छोडऩा चाहते थे, यह तो सभी को पता है, लेकिन कैसे यह मंत्रालय उन्हीं निर्मला सीतारमण को मिला, जिन्हें पहली बार मंत्रिमंडल में शामिल करने के पैरोकार भी अरुण जेटली ही थे। सत्ता के गलियारों में चर्चा यह भी है कि पीयूष गोयल को रेल मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपने से पहले मोदी को जेटली ने महत्वपूर्ण राय दी। इसी तरह धर्मेंद्र प्रधान का प्रमोशन भी जेटली ने ही कराया।
लेकिन यह सब कुछ इतना सीधा नहीं था। 2014 की कैबिनेट में निर्मला, गोयल और प्रधान जेटली के करीबी थे। लेकिन चुनावी जीतों के बाद अमित शाह का कद तेजी से बढ़ा, तो गोयल और प्रधान शाह के ज्यादा करीब पहुंचे। हालिया मंत्रिमंडल विस्तार के बाद ये समीकरण फिर पुराने हालात में लौट आए हैं। यानी जेटली मजबूत हुए और शाह को भाजपा की भीतरी राजनीति में मात तो नहीं, लेकिन मुश्किल होने लगी है।
बात यही नहीं रुकती। गुजरात में चुनाव होने हैं और यह भाजपा की केंद्रीय राजनीति के लिए सबसे अहम प्रदेश है। भाजपा किसी भी कीमत पर इस किले को खोना नहीं चाहती। ऐसे में प्रधानमंत्री और खुद शाह की मौजूदगी के बावजूद जेटली को गुजरात की जिम्मेदारी सौंपी गई है। उन्हें यहां प्रभारी बनाया गया है। आमतौर पर बड़े नेताओं के प्रदेश में किसी दूसरी या तीसरी पंक्ति के नेता को प्रभार सौंपा जाता है, लेकिन यहां उलटा हुआ है। इस नियुक्ति में पेंच भी है। सियासी गलियारों की हवाएं बता रही हैं कि जेटली को प्रभारी प्रधानमंत्री ने ही बनाया है, न कि पार्टी अध्यक्ष ने। यहां भाजपा की दो सबसे चर्चित जोडिय़ों के तीनों चेहरों एक साथ मौजूद हैं। इसलिए अंदाजा लगाइये कि पार्टी के लिए गुजरात विधानसभा का मतलब क्या है। और फिर गुजरात को करीब से जानने वाले जानते हैं कि यहां आनंदीबेन पटेल और अमित शाह के बीच कैसे रिश्ते हैं।
तो कुल मिलाकर, विपक्षी हमलों और सामाजिक आंदोलनों के बीच आर्थिक मुश्किलों से जूझती जनता के भविष्य का फैसला तो तीन ही लोग कर रहे हैं और उनके बीच के समीकरण हर रोज नया रंग ले रहे हैं। इन समीकरणों का हासिल अगले तीन चार महीनों में सामने आ जाएगा। इतंजार कीजिए और खबरों के भीतर छुपी परतों को समझते रहिए...