गौर से देखोगे तो बोल उठेगा गौहर महल

आज लिखा नहीं जा रहा। बुजुर्गों की डांट के बाद उंगलियां यूं भी कांपती ही हैं। हुआ यूं कि कल शाम बेसबब टहलते हुए वीआईपी रोड के सिरे पर माजी साहिबा की मस्जिद के पास चचा जान टकरा गए। मेरा हाथ आदाब के लिए उठा ही था कि वे फट पड़े- `अमां खां क्या अंट शंट लिखते रहते हो। न शऊर आया न तौफीक। कोई और काम-धाम क्यों नहीं करते? सुबेरे-सुबेरे मन खट्टा कर देते हो। मन करता है, तुमको दो सपाटे मारें, कि सारी अखबारनवीसी झटके में बाहर आ जाए।´ चचा के ऐसे मूड में उन्हें जवाब देना मुनासिब नहीं, सो मैंने चुप्पी ओढ़ ली। उनकी डांट का मतलब था कि आज इतिहास के किसी पन्ने से वे गर्द झाड़ेंगे और चमकाकर सामने रख देंगे। ताकि सब कुछ साफ-साफ नुमायां हो जाए। हम गौहर महल की ओर बढ़ गए।
मैंने बात वहीं से शुरू की। `चचा, ये गौहर महल बेगम कुदसिया ने बनवाया था।´ चचा ने तमतमाई नजरों से मेरी तरफ देखा और बोले, `पहले तो दिमाग का जाला साफ कर लो। बेगम कुदसिया का असली नाम था गौहर आरा बेगम उनके पिता गौस मोहम्मद खान ने कुदसिया खिताब दिया और नाम हो गया नवाब गौहर बेगम कुदसिया। और ये जो गौहर महल है, इसकी नींव डाली थी दोस्त मोहम्मद खान के बेटे यार मोहम्मद खान ने। दीगर वजुहात से उस वक्त इमारत न बन सकी और बाद में बेगम कुदसिया, जिनका तारीखी नाम मेहर-ए-तमसील था, ने इसे तामीर कराया।´
चचा अब रौ में थे। वे बोलते रहे। ` सन् 1819 में बेगम कुदसिया ने रियासत का कामकाज संभाला। उस दौर में ईस्ट इंडिया कंपनी की ताकत बढ़ रही थी। बेगम ने जामा मस्जिद तामीर करवाई। इकबाल मैदान की कुदसिया मस्जिद भी इसी दौर में बनी और रेलवे स्टेशन बनवाने के लिए भी बेगम ने बड़ी राशि दान की। ज्यूडिशयल कोर्ट की स्थापना और पुलिस पोस्ट का निर्माण भी उसी तारीख के वाकये हैं।´
चचा एक जगह नहीं बैठते। वे चलते जा रहे थे और बोल रहे थे। अब हम गौहर महल की पहली मंजिल पर थे। मेरी जिज्ञासा यहां कमरे की छत में लगे कांच में थी। चचा समझ गए, बोले- कमरा ठंडा रखने के लिए ये कांच खासतौर पर बेल्जियम से मंगवाए गए थे। बेगम चाहती थीं कि सूरज की रोशनी तो कमरे में आए लेकिन गर्मी न आए। तब ये कांच की छत बनवाई गई।
कुछ देर चचा चुप रहे। खांसी का दौर था। वह गुजरा तो मेरी तरफ देखते हुए बोले-`यूं दीदे फाड़-फाड़ के न देखो। इतनी जल्दी नहीं मरेंगे।´ फिर बोले- `सोचते होगे कुदसिया बेगम का यही कारनामा सबसे बड़ा है। पढ़ना तो छोड़ ही दिए हो। अख्तर साहब की किताब `द रॉयल जर्नी ऑफ भोपाल´ ही देख लेते, तो पता चलता कि उन्होंने मक्का और मदीना में भोपाल के हाजियों के लिए दो इमारतें खरीदी थीं। किताब में `रूबात-ए-भोपाल´ के नाम से जानी जाने वाली इन इमारतों के फोटो भी हैं। जाने किस हिम्मत को दिल में भींचकर खींची होंगी उनने वो तस्वीरें।´ फिर चचा देर तक बोलते रहे। नवाबी दौर के कई राज खोलते रहे। हम बाबे सिकंदरी दरवाजे के पास थे। मोती महल, शौकत महल की तरफ सदर मंजिल दिखाई दे रही थी यहां से। हमारे पास से 1840 का दौर गुजर रहा था। दरवाजे से परी घाट की ओर ताकती औरतों की बतकही की आवाजें आ रही थीं। मैं चचा के साथ हमीदिया की तरफ बढ़ लिया।