रॉय साहब ने भेल में पांच दशक गुजारे हैं। साकेत नगर से भेल कारखाने के बीच के हर हिस्से की बारीकियों को देखने वाली उनकी 75 वषीüय आंखें फिलवक्त नम हैं। उनके हाथों में खबरों का एक पुलंदा है, जिसमें जिक्र है कि दो तिमाहियों से बिक्री में लगातार दबाव झेल रही भेल की जून तिमाही में बिक्री 34 फीसदी ज्यादा रही। साथ ही वे पढ़ चुके हैं कि कंपनी की सालाना आधार पर बिक्री 4329 करोड़ रुपए के स्तर तक पहुंच गई है। ऑपरेटिंग प्रॉफिट में 20 फीसदी की बढ़ोत्तरी, शुद्ध लाभ में 30 फीसदी का इजाफा और ऑर्डर बुकिंग में 28 फीसदी की बढ़त की खबरें उनकी आंखों में छाई उदासी को कम नहीं कर पातीं और कंपनी का 95 हजार करोड़ का बैकलाग भी उनके चेहरे पर चमक के रूप में दिखाई नहीं देता।बता दूं कि अभी पांच बरस पहले तक वे इन्हीं खबरों को सुनाते हुए तन जाते थे। भोपाल की पहचान में शुमार भेल के बारे में एक अच्छी खबर उन्हें जवान कर देती थी और स्टील की बढ़ती कीमत या योजनाओं में चल रही देरी उनकी हंसी रोक देती थी। संभव था कि फिलवक्त भी योजनाओं में चल रही 15 महीने की देरी उन्हें परेशान किए हो, लेकिन ऐसा था नहीं- अब रॉय साहब को खबरें न तो तंग करती हैं, न उनका रंग बदलती हैं। अब वे पिछले दिनों को याद करते हैं। साकेत नगर 2-सी के आखिरी कोने पर गोपाल साहू के मकान के बाद फैले मैदान में घूमते हुए वे अपनी उम्र के साथियों से उस दौर की बात करते हैं, जब लालघाटी और करौंद से आनेवाली बड़ी-बड़ी मशीनों ने इस इलाके की रंगत बदली थी। नेहरू का समाजवादी स्वप्न पूरा किया जा रहा था। जो अब भी उस दौर की आखिरी हरियाली के तौर पर डटा है। वे बताते हैं, `यह जो भेल का हरापन है न, इसमें पसीना मिला है। जानते ही हैं किसका।´