``ये दलित तो मुसलमानों से भी ज्यादा मारकाट करने वाले होते हैं।``

विनीत मूलत: कवि नहीं है लेकिन वे कविताएं लिखते हैं. तकरीबन चार महीने पहले उन्होंने एक कविता पूरी की थी, जिसे मैंने एक शहर में होते हुए भी मेल पर भेजने के लिए कहा था. ब्लॉग पर साया करने के लिए. कोताही के कारण यह टलता रहा और फिर वह मेल कहीं खो गई. आज की खबरें पढकर यह कविता फिर याद आई. सर्च किया तो पीडीएफ फाइल मिल गई. मेरी तई यह अपने समय की सबसे जरूरी कविता है. उम्मीद है आप भी इस सच्चाई के हामी होंगे. इससे पहले कि आप इस कविता के सवालों से उलझें विनीत के बारे में चंद शब्द.
छह महीने पहले इंदौर में दाखिल होते वक्त जो कुछ एक चेहरे आंखों में बैठे थे, उनमें विनीत का चेहरा भी शामिल था. दाडी से भरा गोल चेहरा, जिसकी सपनों से लबरेज छोटी छोटी आंखें हर वक्त खुली रहती हैं. करीब करीब पूर्वी एशियाई या यूं कहें कि चाइनीज चेहरा. 10 साल बाद यह चेहरा सितंबर के दूसरे हफ्ते में देखा. रफीक भाई के साथ महावीर नगर पहुंचा तो वे कंप्यूटर में आंखें गडाए थे. दशक भर की धूल, धूप और पानी का कोई असर इन पर नहीं पडा था. पड भी नहीं सकता, सपने समयातीत होते हैं न. तकल्लुफ विनीत की तर्बियत में नहीं है. उनके पास आत्मीयता का गर्म हाथ है, जो दोस्ती की शक्ल में आपकी तरफ बढता है. यह संभव नहीं है कि आप विनीत से मिलें और उनके दोस्त बनकर न लौटें, शर्त बस इतनी है कि आप एक भरपूर इंसान की सोहबत को उसके पूरे अर्थों में कबूल करते हों. विनीत अपने भीतर के बच्चे को अमूमन छुपाए रखते हैं और अपने समय के हाशिये पर डाल दिये सवालों को केंद्र में लाने की ईमानदार कोशिश करते हैं. पूरी उम्मीद, जिजीविषा और ताकत के साथ. हर तरह से. खूबसूरत और सबके लिए बराबरी के स्वप्न वाली दुनिया में रंग भरते हुए वह कभी नहीं थकते. मनुष्यत: के खिलाफ होने वाली हर कार्रवाई का विनीत विरोध करते हैं और इसे दर्ज कराते हुए वे अभिव्यक्ति के सभी फार्म्स में अपनी बात कहते हैं. कविता में भी.
दिसम्बर 2006 की एक तारीख
-विनीत तिवारी
1 दिसम्बर 2006 की बात है
जब नईदुनिया अखबार के पहले पन्ने पर
जलती हुई ट्रेन के एक रंगीन चित्र के साथ
मुंबई लपटों में .................... जैसे किसी शीर्षक वाली खबर थी।
1 दिसम्बर वैसे भी कोई अच्छी तारीख नहीं होती
जाते हुए बरस के आखिरी महीने की पहली तारीख से
आप और उम्मीद भी क्या कर सकते हैं
बीतते बरस के 11 महीनों के अधूरे काम
आपकी नींदें उड़ाने की लगभग कामयाब कोशिश कर रहे होते हैं
और फिर
35 के आसपास पहुँचकर
उम्र का एक बरस घट जाना
कुछ इस तरह का डर भी देता है
कि मझधार में अगर दम टूट गया
तो जो थोड़ा बहुत यथार्थ और समाजवाद
अभी-अभी जिन सपनों और योजनाओं में शामिल हुआ है
उनका क्या होगा!
1 दिसम्बर इसलिए भी अच्छी तारीख नहीं होती
क्योंकि इसी के नजदीक, इसी हफ्ते में
3 और 6 दिसम्बर भी आती हैं
3 दिसम्बर यानी भोपाल गैस काण्ड की
उस भयानक तस्वीर की याद
जिसमें एक बच्चे की मिट्टी में अधढकी लाश
फटी हुई आँखों से मानो आपकी ओर हाथ बढ़ा रही है
और 6 दिसम्बर तो फिर
ऐसी देश भर की लाशों का
1992 से अब तक जारी अनेक खण्ड़ों वाला
एक भरपूर एलबम है
ये तो हुई देशभर की बात
लेकिन 2006 की 1 दिसम्बर को
मुंबई में 1 रोज पहले घटी घटना की खबर ने
मेरी सुबह को क्या किया -
मेरी दिलचस्पी आपको ये बताने में है।
तो हुआ यूँ कि
सुबह की चाय का वक्त था
और शिवपुरी से मेरे बड़े भाई
उसी दिन कार खरीदने के लिए अलसुबह इन्दौर पहुँचे थे
देखा जाए तो पिता के साथ सुबह-सुबह
दोनों बेटों के शांति से बैठकर चाय पीने की
हमारी पारिवारिक स्मृतियाँ काफी नहीं हैं
एक तो नामी पहलवान रहे पिताजी को चाय पसंद ही नहीं
दूसरा, माँ को बगैर नहाये किसी का भी,
दुनिया भर में किसी का भी
चाय तो दूर पानी तक पीना पसंद नहीं
बहरहाल वक्त के साथ नियमों में आयी थोड़ी ढील से
1 दिसम्बर 2006 की सुबह घर का दृश्य यह था
कि परिवार के हम तीन पुरुष,
एक साथ चाय पीने बैठे थे
अक्सर की तरह उस वक्त अख़बार आ चुका था
पिता की दिलचस्पी आध्यात्म में है
भाईसाहब की कार में और पहनने वाले सोने में
मेरी समाजवाद में
सो तीनों की कॉमन रुचि का मरकज़ जो हो सकता था
वो अखबार था
जी हाँ, 1 दिसम्बर 2006 का वही अखबार
जिसके ऊपर जलती हुई ट्रेन का बड़ा सा चित्र छपा था
वह घटना नतीजा बतायी गयी थी
कानपुर में आम्बेडकर की मूर्ति के अपमान का
मैंने वो खबर पढ़ ली
भाई ने भी पढ़ ली
और पिता ने भी पढ़ ली
शायद मौन तोड़ने की गरज से ही पिता बोले -
``ये दलित तो मुसलमानों से भी ज्यादा मारकाट करने वाले होते हैं।``
और मेरे भाई, जो पेशे से कामयाब वकील हैं
और काफ़ी भीषण लड़ाई-झगड़ों के उनके किस्से
अभी तक धुँधले नहीं पड़े हैं,
उन्होंने भी सहमति में सिर हिलाया।
1 दिसम्बर 2006 की सुबह की वो चाय
मुझसे पीते न बनी
लगभग 13 बरस बाद एक बार फिर
मेरी घर से भागने की इच्छा हो आयी
लेकिन इसमें चाय का क्या कसूर
इसमें उस सुबह का क्या कसूर
इसमें 1 दिसम्बर का क्या कसूर
कसूर इस बात का है कि
यात्रियों को निवेदनपूर्वक नीचे उतारने के बाद
विरोधस्वरूप जलायी गयी ट्रेन तो दिखायी जाती हैं
मोटी हेडिंग में लिखते हैं अखबार
कि आम्बेडकर की मूर्ति तोड़ने के विरोध में दलितों की हिंसा
लेकिन जब महाराष्ट्र के ही एक छोटे से गाँव खैरलांजी में,
इसी बरस की 29 सितम्बर को सूरज ढलने के पहले,
जब 40 बरस की सुरेखा को,
17 साल की प्रियंका को
19 के रोशन और 21 के सुधीर को
गाँव की चौपाल तक नंगे घसीट कर
माँ-बेटी से खुले में बलात्कार किया गया
और माँ सहित तीनों बच्चों को
बेतरह पीटते हुए उनके पैर तोड़ दिये गये
और आखिर में उन्हें कुल्हाड़ी से काटकर
उनके मुर्दा जिस्म बैलगाड़ी पर लादकर
गाँव से दो किलोमीटर दूर नहर में फेंक दिये गये ............
तो ये खबर किसी समाचार पत्र के
किसी संस्करण के किसी कोने में बमुश्किल
खोजने पर मिलती है ...................
और तब कोई नहीं कहता
कि मारे गये ये चारों दलित
किसी दलित या मुसलमान की नहीं
बल्कि सवर्ण कहे जाने वाले गैर दलित हिन्दुओं की जातिवादी क्रूरता के शिकार हैं
तब कोई तथाकथित सवर्ण अपनी जाति पर शर्मिंदा नहीं होता।
जब 6 दिसम्बर 06 को नईदुनिया के
पेज 3 के पहले कॉलम में छपी एक छोटी सी खबर बताती है कि
40 बरस के पुरुषोत्तम पिता रामप्रसाद ने
अपनी 14 बरस की बेटी के साथ
तीन महीनों तक बलात्कार कर उसे गर्भवती कर दिया
तो पढ़ने वाला कोई नहीं कहता
कि दुर्योधन, दु:शासन के काल से,
महर्षि गौतम, अहिल्या और इन्द्र के जमाने से ही
पुरुषों में उत्तम अर्थात पुरुषोत्तम
पिता रामप्रसाद
नामक इस 6 दिसम्बर 06 के बलात्कारी तक
हिन्दू मनुष्य तो ठीक
हिन्दू देवता तक बलात्कारी और छिछोरे होते आये हैं
इसमें मेरे पिता का क्या कसूर
जिन्होंने दुर्लभ ईमानदारी के साथ जिंदगी जी
बी.ए. करने के लिए जो गाँव से
30-40 मील साइकल चलाकर जाते थे
अभावों की वजह से अनाथालय तक में रहे
नेहरु के भाषण सुनने के बाद लिखी गयी
उनकी डायरी पढ़ने वाले को आज भी भावुक कर जाती है
रिटायर होने के बाद से आध्यात्म में ज्यादा रुचि लेने वाले वे
अधिकतर अखबारों, चैनलों, पार्कों में
साधु-स्वामियों की नफरत फैलाने वाली साज़िशों के बावजूद,
बहुत हद तक धार्मिक ही हैं, साम्प्रदायिक नहीं
किसी की मदद करने से पहले
उसकी जाति या धर्म वे अभी भी नहीं पूछते
और आर.एस.एस. से अभी भी चिढ़ते हैं
कसूर मेरे भाई का भी क्या है
जो विज्ञापनी दुनिया के करोड़ों शिकारों में से एक
21वीं सदी के भीतर दाखिल दोहरे व्यक्तित्व के
बाकी नौजवानों की तरह
एक हाथ से मंदिर की घंटी बजा रहा है
और दूसरे से मोबाइल की,
जो पेन-लाईटर से लेकर कार-कम्प्यूटर तक
आधुनिकतम बेहतरीन तकनीकी का मुरीद है
लेकिन हाथों में इस बाबा, उस पीर, इस महंत की बतायी
लाल-पीले पत्थरों वाली अंगूठियाँ बढ़ा रहा है।
कसूर उसका क्या है
जो काले-सफेद के पेशे में होने के बावजूद
बाज मौकों पर इंसान की तरह पेश आता है
बच्चों के साथ खेलता-खिलाता है
और उसके कई दोस्त मुस्लिम भी हैं और दलित भी
क्या मेरे पिता और मेरे भाई उन
बिल्कुल ही बेकसूर और आम इंसानों की
6 अरब की विश्व आबादी का एक अदना, मासूम हिस्सा
बाज़ार के लिए बिल्कुल वैसा ही आसान निशाना नहीं
जैसा अमेरिका के लिए बना अफगानिस्तान, इराक या लेबनान
और सच पूछिए तो
इस कविता में पात्रों की तरह लाये गये
मेरे परिवार के ये दो सदस्य
क्या सिर्फ मेरे ही परिवार के सदस्य हैं, आपके नहीं ?