जाति-जाति रटते, जिन की पूँजी केवल पाखंड
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति है ये मेरे भुज दंड।
ऊपर सिर पर कनकछत्र्, भीतर काले के काले,
शरमाते नहीं जगत् में जाति पूछने वाले ?
मगर मनुज क्या करे, जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं,
चुनना जाति और कुल, अपने बस की तो बात नहीं!
रामधारी सिंह दिनकर की कृति रश्मीरथी से
यह एक दलित युवक का बयान है. हिन्दी साहित्य के पहले दलित पात्र का बयान.
कर्ण का तर्कशील बयान.
अर्जुन को लडने के लिए ललकारते कर्ण के खिलाफ कृपाचार्य ने जाति का कुतर्क फेंकते हुए कहा था कि राजकुमार अर्जुन हर किसी से नहीं लडता. और कर्ण को अपनी जाति बताने के लिए कहा जाता है. उस सामंती कठघरे में दिया गया बयान है यह. महाभारत मेरी प्रिय कहानियों में शुमार रही है. इसके सभी पात्र जीवन के कई कई हिस्सों को छूते हैं और मुझे यह ज्यादा यथार्थवादी कहानी लगती है, बनिस्बत रामायण के. तुलसी में यथार्थ को पकडने की बेचैनी तो है लेकिन वे कई जगह अति भावुक हो जाते हैं और चमत्कार का मोह उनसे छोडा नहीं जाता. खैर. अभी बात महाभारत की.
महाभारत के जो पात्र मुझे सबसे ज्यादा पसंद हैं उनमें कर्ण बेतरह आकर्षित करता है. अमर चित्र कथा के जरिए पहली बार कर्ण से परिचय हुआ. फिर जब महाभारत पढा तो यह पात्र लगातार मिलता रहा. गांवों में, शहरों में, नुक्कडों पर, चौराहों पर, कॉफी हाउस और अब न्यूज रूम में भी. शहडोल गया था तो वहां कर्ण का मंदिर देखा. पिरामिडिकल सुपर स्ट्रक्चर का मंदिर है यह. बुलंदशहर में भी कर्ण का एक मंदिर है.
कर्ण की पैदाइश से ही देखें तो वह विचित्र है. वह कुंती का विवाह से पहले का बेटा है. कर्ण वह समय नहीं भूला जब उस पर तानों की बरसात हुई थी. उसे पढाई के लिए भी दर दर भटकना पडा. पहचान छुपाकर परशुराम से शिक्षा प्राप्त करना. यानी कर्ण संघर्ष की उपज है. एक दलित का संघर्ष. नाजायज होने के अपमान में जीते युवक का संघर्ष.
एक दलित युवक का सत्ता के नजदीक पहुंचना और सत्ता की चालाकियों से दूर रहना सचमुच उसे महामानव बनाता है. याद कीजिए कृष्ण का कर्ण से मिलने जाना. कृष्ण उसे युद्ध न करने के लिए कहते हैं. दुर्योधन का साथ छोडने के लिए कहते हैं. वह जानता है दुर्योधन हारेगा. और इस हार के पूर्वाभास के तर्क भी कर्ण के पास बेहद वैज्ञानिक हैं. वह कृष्ण के राजनीतिज्ञ पहलू को जानता है. और मानता है कि कृष्ण अपने समय का बेहद चतुर राजनीतिक है. वह अर्जुन यानी पांडवों को जिताने के लिए हर नीति अपनाएगा. कर्ण का यह पूर्वानुमान सही साबित हुआ. कौरवों के तीनों बडे लडाकों भीष्म, द्रोण और कर्ण की मौत का कारण कृष्ण ही बनता है. दुर्योधन को भी कूटनीति से ही मारा गया. कृष्ण अपने भाइयों के खिलाफ न लडने की सलाह देता है, तो कर्ण कहता है कि दुर्योधन मेरे सगे भाइयों से बढकर है. उसके ऋण से कर्ण अपना रोम रोम बंधा होने की बात कहता है. उस वक्त उसकी आंखों में वह सभा आती है, जब दुर्योधन ने कर्ण को अंग देश का राजा घोषित किया था, अर्जुन से बराबरी के लिए. एक दलित युवक के राज करने का यह पहला मामला बनता है, भले ही साहित्य में ही सही. पहचान के लिए भटक रहे एक नौजवान का यह रूपांतरण साहित्य की बडी घटना है. कृष्ण को दो टूक शब्दों में कर्ण का कहना कि सारे सुख छोडकर भी दुर्योधन का साथ नहीं छोडूंगा, उसके नम्र और भावुक होने भर का मामला नहीं है. यह दोस्ती के प्रति आस्था भी नहीं है. यह समाज से अपनी लडाई में साथ देने वाले कंधे के प्रति साहसिक कार्रवाई है.
दिलचस्प है कि अवैध संतान होने के तानों से आहत कर्ण कुंती से घृणा नहीं करता. वह अर्जुन के अलावा कुंती से अन्य पांडवों को न मारने का वादा भी करता है.
यह सिर्फ मां के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन नहीं है, बल्कि एक स्त्री के प्रति आदर भी है. आप कह सकते हैं कि द्रौपदी के बारे में भरी सभा में भद्दी टिप्पणी कर्ण के महिला विरोधी होने का पर्याप्त सुबूत है, लेकिन देखा जाए तो इसमें पेंच है. याद कीजिए द्रौपदी के स्वयंवर का समय. कर्ण मछली की आंख भेद सकता था, लेकिन कृष्ण ने चालाकी से उसे दलित करार दिलवाकर द्रौपदी को उकसाया और द्रौपदी ने कर्ण के बारे में अनर्गल टिप्पणी की. फिर और आगे देखें तो इंद्रप्रस्थ में आयोजित यज्ञ के समय कर्ण पर हंसना, दुर्योधन के बारे में टिप्पणी.. इन्हें भी देखना चाहिए. अपना अपमान कर्ण सह भी ले तो दुर्योधन के बारे में वह कुछ भी सुनना पसंद नहीं करता. मुझे लगता है, द्रौपदी के साथ किए गए व्यवहार को कर्ण की एक कमजोरी से ज्यादा तूल नहीं देना चाहिए. वहां द्रौपदी कोई कमजोर महिला नहीं थी, वह एक ताकतवर स्त्री थी, जो मौका मिलने पर किसी का अपमान करने से नहीं चूकी.
एक और दिलचस्प बात. कर्ण और भीष्म में कई समानताएं हैं. दोनों के गुरु परशुराम हैं. दोनों का रिश्ता गंगा से है. फिर भीष्म की कर्ण से चिढ. भीष्म और द्रोण ने कभी कर्ण की प्रतिभा को वह तरजीह नहीं दी जिसका वह हकदार था. भीष्म ने तो अपने सेनापति रहने तक महाभारत युद्ध में कर्ण को लडने ही नहीं दिया, मजेदार तर्क के साथ कि वह एक सारथी का बेटा है. भीष्म की सामंती ग्रन्थि यहां अपने सबसे वीभत्स रूप में सामने आती है.
कर्ण का पांडव खेमे से गंभीर मतभेद होने के बावजूद कृष्ण और विदुर से उसके रिश्ते अलग किस्म के थे. कर्ण राजनीतिक रूप से कृष्ण के शातिरपने का आलोचक है, लेकिन वह कृष्ण की इज्जत भी करता है. दूसरी तरफ राजनीति में विदुर और कृष्ण एक पाले में हैं अप्रत्यक्ष रूप सें. क्योंकि विदुर राजसत्ता के साथ रहते हुए भी कूटनीतिक रूप से पांडवों के साथ है. कर्ण और विदुर का रिश्ता उनके हीन जाति के होने का ही है. लेकिन विदुर में कर्ण जैसी निश्छलता नहीं है, विदुर के पास सत्ता से विद्रोह की कोई परंपरा नहीं है. वह उस राजधर्म से बंधे हैं जो एक राजा को सभी किस्म की अराजकताएं उपलब्ध कराता है.
कर्ण के साथ पूरी कहानी में जो नाइंसाफियां हुईं हैं, यूं तो उसके लिए सबसे ज्यादा खुद लेखक वेद व्यास ही जिम्मेदार हैं, लेकिन इसकी एक बडी मिसाल यह है कि जब यह कई लोगों पर जाहिर भी हो गया था कि कर्ण कुंती का बेटा है, तो हस्तिनापुर की राजसत्ता पर यकीनन उस वक्त के नियम कायदों से तो कर्ण का ही हक बनता था, लेकिन यहां वेद व्यास इस पात्र के साथ नाइंसाफी करते हैं. वे इस सवाल को कहीं उठाने की जहमत नहीं रखते. एक हल्का का सा जिक्र कुंती के मुंह से करवाते हैं, जब वे अर्जुन के जीवन की भीख मांगने कर्ण के पास जाती हैं.
मैंने अपनी राय महज कर्ण के बारे में रखी है. जाहिर है आप इससे सहमत हों यह जरूरी नहीं. आपकी आपत्तियों का स्वागत है. इस बहाने हमारे समय की एक महत्वपूर्ण पुस्तक के इस जरूरी पात्र पर बातचीत ही हो जाए.
अगली बार बात करेंगे महाभारत की दो दोस्तियों पर