यह तो साफ है कि ईरान चौतरफा अमेरिकी दबावों से घिर रहा है और ये दबाव बढ़ते जा रहे हैं। ठीक मौका मिलते ही ईरान को अपने साम्राज्यवादी ऑक्टोपसी शिकंजे में कसने के लिए वो ताक लगाये बैठा है और यह भी साफ है कि ईरान पर कब्जा होते ही वो उत्तरी कोरिया पर अपना निशाना साधेगा। ऐसे में ईरान के लिए अपनी संप्रभुता और आजादी बचाये रखने के लिए ये जरूरी है कि वो अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोधी बिखरी अन्तरराष्ट्रीय ताकतों को एकजुट करे। क्यूबा ईरान का पुराना खैरख्वाह रहा है और पिछले दिनों वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज के साथ मिलकर अहमदीनेजाद ने जो वैकल्पिक कोष बनाया है उससे दूसरे छोटे देश भी विश्व बैंक और आईएमएफ के चंगुल से बचते हुए अमेरिकाविरोधी खेमे को मजबूत कर सकते हैं। वेनेजुएला और ईरान मिलकर पेट्रोलियम व्यापार में डॉलर की सर्वोच्चता को भी चुनौती देने की वैसी कोशिश मिलकर कर रहे हैं जो सद्दाम हुसैन ने अकेले की थी।
लेकिन इन कोशिशों के असर का दायरा बड़ा होने में वक्त लगेगा। अगर इस बीच ईरान पर अमेरिका या इजरायल हमला करता है तो सुदूर लैटिन अमेरिका में मौजूद वेनेजुएला या क्यूबा उसे रोक सकने में सक्षम होंगे-ऐसी उम्मीद करना ज्यादा आशावादी होना होगा। ईरान का सबसे ताकतवर और असरदार सहयोगी उसके बिल्कुल पड़ोस में मौजूद इराक हो सकता था जिसे ईरान ने अपनी पुरानी दुश्मनी और तंगनज़री की वजह से आंखों के सामने तहस-नहस होते देखा।
चीन, रूस जैसे देशों से उसे अगर अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर कोई सहयोग मिलता भी है तो वो भी एक बहुत सीमित सहयोग ही होगा। चीन ईरान के तेल का बड़ा आयातक देश है। ईरान के साथ चीन का 17 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष व्यापार है जो बाजरिये दुबई 30 अरब डॉलर तक पहुंचता है। अपने आर्थिक हितों के लिए ईरान के साथ व्यापार करने से चीन पर कोई दबाव अमेरिका नहीं बना सकता है। हां, अगर ईरान को काबू में करने में या वहां के तेल संसाधनों पर कब्जा करने में अमेरिका कामयाब हो जाता है तो चीन, क्यूबा, भारत जैसे अनेक देशों की निर्भरता अमेरिकी प्रभाव वाले देशों पर बढ़ जाएगी। हालांकि चीन लगातार संयुक्त राष्ट्र संघ व अन्य बहुपक्षीय वार्ताओं में ईरान पर प्रतिबंधों के खिलाफ दलीलें रखता रहा है लेकिन चीन से वैसी किसी भूमिका की उम्मीद करने का कोई आधार नहीं है जैसी सोवियत संघ के अस्तित्व में रहते सोवियत संघ निभाया करता था।
पड़ोसी मुल्कों में पाकिस्तान और भारत दो अन्य ताकतवर देश हैं और दोनों ही देशों के सामने ईरान ने गैस पाइपलाइन बिछाने का जो प्रस्ताव रखा है वो अमेरिका की प्रस्तावित पाइपलाइन योजना को खटाई में डाल सकता है। विशेषज्ञों के मुताबिक ये कहा जाना तो मुिश्कल है कि उक्त पाइपलाइन से प्राप्त होने वाली गैस अमेरिका की प्रस्तावित पाइपलाइन योजना से सस्ती होगी, लेकिन ये जरूर कहा जा सकता है कि अगर ये योजना आकार लेती है तो भारत, पाकिस्तान और ईरान के सम्बंधों में ऐतिहासिक रूप से सकारात्मक बदलाव आएगा। अगर ऐसा होता है तो ये अमेरिकी वर्चस्व को एक चुनौती तो होगी ही साथ ही ये एशिया के तीन प्रमुख देशों को आपस में जोड़ने और शान्ति के नये अध्याय को भी शुरू करने की भूमिका निभाएगी। इस परियोजना का भविष्य भारत और पाकिस्तान की सरकारों के नज़रिये पर निर्भर करता है कि वे अमेरिका की खुशामद करना ठीक समझती हैं या अपने मुल्कों की, इस महाद्वीप की और आखिरकार पूरी इंसानियत की बेहतरी को तवज्जो देती हैं। बेशक दोनों ही देशों की मौजूदा सरकारों से ये उम्मीद करना एक दूर की कौड़ी है लेकिन दोनों ही देशों के भीतर मौजूद जनवादी ताकतों से ये भूमिका निभाने की उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे देश का जनमत इस पक्ष में मोड़ने की हर मुमकिन कोशिश करें ताकि हुकूमतें जनता की आवाज को अनसुना न कर सकें। इराक पर अमेरिकी हमले के वक्त अगर ईरान खामोश न रहा होता और अन्याय के खिलाफ खड़ा हुआ होता तो आज पिश्चम एशिया के हालात बिलकुल जुदा होते। वर्ना जैसा इराक ने भुगता है और ईरान जिस खतरे के सामने खड़ा है वैसा ही हाल भारत और पाकिस्तान का भी हो सकता है, कि ``जब वो मुझे मारने आये तब कोई नहीं बचा था।´´
खुद ईरान की हुकूमत को भी ये समझना जरूरी है कि उसे अपने भीतर लोकतन्त्र को मजबूत करने के कदम उठाने होंगे। 1979 से अब तक तीस बरस का पानी बह चुका है और एक वक्त जो क्रान्ति मजहब के सहारे हुई, उसका लगातार लोकतान्त्रीकरण न किया गया तो उस क्रान्ति की उपलब्धियां भी इतिहास छीन सकता है। देश के भीतर अल्पसंख्यकों, महिलाओं आदि को अधिक अधिकारसंपन्न करने से देश, हुकूमत और लोग एकसाथ मजबूत होंगे।
जिम्मा सबका साझाबात सिर्फ परमाणु हथियारों की नहीं, बात सिर्फ तेल पर कब्जे की नहीं, बात जंग और अमन की नैतिकता की नहीं, बल्कि इससे कुछ ज्यादा है। बात ये है कि क्या दुनिया के सभी देश अपने आपको मानसिक रूप से अमेरिका के अधीन महसूस करने के लिए तैयार हैं, क्या आजादी जीवन का कोई मूल्य है या नहीं, क्या हर किस्म के संसाधन पर कब्जा और फैसले की ताकत हम अमेरिका के पास सुरक्षित रहने देना चाहते हैं और क्या हमें इस बात से कोई तकलीफ नहीं कि दुनिया की आबादी का एक बहुत ही छोटा हिस्सा, जो दरअसल पूरी अमेरिकी जनता का भी प्रतिनिधित्व नहीं करता है, सिर्फ शोषण की ताकत और पूंजी की ताकत का इस्तेमाल करके सारी दुनिया पर निबाZध अपना राज करता रह सके?
दूसरे विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ और चीन की मौजूदगी ने अमेरिकी साम्राज्यवाद के विश्व विजय के सपने पर लगाम कसे रखी। न तो अमेरिकी उद्योगों ने अपने आपको दुनिया की उत्पादन व्यवस्था में सिरमौर साबित किया (हथियार निर्माण को छोड़कर), न ही उनकी आर्थिक नीतियां कामयाब हुईं, उल्टे अमेरिकी अर्थव्यवस्था ने न सिर्फ अमेरिका बल्कि उससे जुड़े अन्य अनेक देशों का भी दीवाला निकाल दिया। अगर देखा जाए तो कुछ भी ऐसा नहीं है अमेरिका के पास जिसकी वजह से शेष विश्व में उसे वो इज्जत और रसूख मिलना चाहिए जो उसे मिल रहा है, सिवाय एक फौजी ताकत को छोड़कर। अगर विश्व बाजार में उसका माल नहीं बिक रहा है तो वो अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक के जरिये अपना माल दूसरे देशों पर थोपता है। अगर कोई देश इस तरह के दबाव को मानने से इन्कार कर दे तो अमेरिका फौज के दम पर उसे परास्त करता है। अगर उसका डॉलर अन्तरराष्ट्रीय बाजार में कमजोर पड़ता है तो उसका रास्ता भी वो फौजी कार्रवाई से निकालता है। एक तरह से अमेरिका दुनिया को उसी दशा की ओर ले जा रहा है जिसके बारे में रोजा लक्जमबर्ग ने इशारा किया था कि ``अगर पूंजीवाद को खत्म करके समाजवाद न स्थापित किया जाए तो एक स्थिति के बाद ये दुनिया को एक बर्बर सभ्यता में पहुंचा देता है।´´ दुनिया को बर्बरता से बचाने का जिम्मा सबका साझा है।
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(समाजवाद के यकीनी स्वप्न को आंख में पालने वाले विनीत यांत्रिकी में पत्रोपाधि के बाद बारास्ता पत्रकारिता आंदोलनों में शरीक हुए। नर्मदा बचाओ आंदोलन से गहरा जुडाव। मार्क्सवादी दुनिया के पैरोकार। इन दिनों भारतीय कृषि पर एक विस्तृत अध्ययन करने वाली टीम के कोर मेंबर्स में से एक।)