प्रियतमा पृथ्वी के नाम
मैं नहीं रख सका
पृथ्वी के लिए
दुःखों के अलावा
वह सबकुछ भी
जो हमारे समय में
इफरात में मौजूद था
एसएमएस के मैसेजों में
डिजिटल चैनलों में
लालकिले की प्राचीर से
उड़ते हुए उन शब्दों में
जिनकी ध्वनियां
स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस के दिनों में
दिल्ली की बजाय
कहीं और से आती थीं
वृक्षों के लिए हमारे पास
कुल्हाड़ी के सिवा
कुछ भी नहीं बचा था
जबकि उन्हीं दिनों
महँगी रसिक कारें
मौसम को रौंदती हुई
बेकाबू हुई जा रही थीं
फ्रीज के नये-नये मॉडलों से
अटा पड़ा था रसोईघर
और राजधानियों में दौड़ रही थीं
वातानुकूलित मेट्रो बसें और रेल
पहाड़ घिरे थे
दैत्याकार शावल मशीनों से
उन पर बसे हमारे घर
जागने से पहले ही
गिरा दिये गये थे
मलबे में दबी आँखें
कटहल के कौओ की तरह
बिखरी पडी थीं पहाड़ों पर
पंछियों का एक झुण्ड
अभी भी मंडरा रहा था
पहाड़ी फुनगियों पर
नदियों के लिए भी हम
सिवाय बोतलों के
कुछ नहीं बचा पाए थे
जबकि देश के एक बड़े क्रिकेटर ने
अपने नवनिर्मित आलीशान मकान में
स्वीमिंग पूल बनाया था
और माननीय न्यायालय ने
मोहल्ले की उस जनहित याचिका को
खारिज कर दिया था
जिसमें कुँओं के लिए
पानी की माँग की गयी थी
अपनी प्रेमिकाओं के लिए भी
हमारे पास
सिर्फ ड्यूडोरेंट ही रह गया था
हालांकि जवान गंध
अभी भी रह-रह कर तैर रही थी
लेकिन नौजवान देश
आउटसोर्सिंग में खप-खप कर
बेदम हो चुका था
सपने
जल्दी में निबटा दिये गये
गंदी चड्डियों की तरह
बिखरे हुए थे
हमारे समय के सबसे
लोकप्रिय सीरियलों में
और बच्चों के लिए क्या बचा था
बस निष्प्राण कार्टून्स
एक अजीब-सी अमानवीय
और अप्राकृतिक दुनिया
अभी भी थोड़ी-बहुत बची हुई दुनिया से
बिल्कुल भिन्न
उस गगनचुंबी ईमारत की
आलीशान बैठक में
जहाँ समंदर एक शीशे के जार में कैद था
और जिसमें तड़प रही थीं
दादी-नानी के किस्सों वाली
सारी की सारी रंगीन मछलियाँ
नक्काशीदार गमलों में
हवा के मामूली झोंको से भी
कँपकँपा उठ रहे थे पृथ्वी के सारे वर्षा वन
मुझे माफ करना
मेरी प्रियतमा धरती
नहीं जानता इन सबसे
कितना बचा रहेगा तुम्हारा रूप-लावण्य
तुम्हारी हँसी
और वह गंध
जिससे प्रकृति बौरा जाती थी
प्रेम लबलबाने लगता था