मुझे कविताएं पढकर उबकाई आती है

इधर कुछ दिनों से मेल पर, बज्ज पर और कभी कभार चेट बॉक्स में भी कुछ लिंक आते हैं। कविताओं के लिंक। मन में जो आया सो भेज दिया। मुझे महसूस होता है कि ये तमाम कविताएं कोई एक ही शख्स लिख रहा है। वही भाषा, वही विन्यास, वही भाव। मन, पेड, पहाड, हृदय, अभिव्यक्ति, सुकून, सपना, मौन, आलाप, दरिया,...... ये कुछ स्थायी शब्द हैं। इस सभी कवियों से बात करने में एक साझी बात जो दिखती है कि उन्होंने अपने पूर्व कवियों को पढा ही नहीं है। आज मेरी ऐसे ही तीन कवियों से बातचीत हुई। ये तीनों ही मुक्तिबोध के नाम से वाकिफ नहीं हैं। पाब्लो नेरूदा इन्हें कोई साइंटिस्ट लगते हैं। पिछले एक साल में इन्होंने किसी किताब को नहीं पढा है। अगर हिंदी की इंटरनेटी कविता के यही लक्षण है, तो हालात का अंदाजा लगाया जा सकता है।
महत्वपूर्ण यह भी है कि ये सभी कवि इंटरनेट पर बेहद सराहे गये हैं। इनकी कविताओं पर 20 से 30 तक टिप्पणियां आई हैं। ज्यादातर टिप्पणियों में बहुत अच्छा, बधाई, खूबसूरत, अछूता ख्याल टाइप वाह वाही है। ज्यादा हुआ तो कविता की ही चार पंक्तियां पेस्ट कर दी गई हैं।
मैं इसे हिंदी कविता के साथ की जा रही बदतमीजी करार देता हूं।
इस पीठ खुजाऊ वाह वाही का दूसरा दुखद पहलू यह भी है कि ऐसी ज्यादातर कविताएं महिलाओं के ब्लॉग पर हैं, जिन्हें बिना कंटेट की गुणवत्ता के सराहा गया है। कविताओं की सराहना कुछ इस अंदाज में की जा रही है जैसे सौंदर्य से अभिभूत होकर गुणगान किया जा रहा हो। क्या यह महिला लेखन को बदनाम करने की साजिश है? हिंदी पत्रिकाओं के संपादकों ने जिस चालाकी से हिंदी कविताओं का स्तर गिराया है, इंटरनेट का योगदान भी उसमें कम नहीं है। हिंदी को बचाने के नाम पर कूडा करकट की सराहना एक खतरनाक प्रवृत्ति है इसे तत्काल रोका जाना चाहिए।
पर कैसे? कैसे? कैसे?
जो सहमत हैं, वे बात आगे बढायें। असहमत अपने तर्क रखें।