बीते दस महीनों में दिल्ली का चेहरा बहुत करीब से देखा। आनंद विहार के पार जाना कम ही हुआ लेकिन दिल्ली न
आने, दिल्ली में काम न करने का जो डर था वो अब कुछ कम हो गया है। लेकिन दिल्ली की बदतमीजियों को भी करीब से देखा और फिर कहने को जी चाहता है कि ये दिल्ली तुम्हीं रखो। ये गालिब की दिल्ली नहीं, जिसे भगवत रावत याद करते हैं। रूपकों से हम असल नतीजों और मर्ज के रग को ठीक से नहीं पहचान पाते, लेकिन दिल्ली का रूपक अपने आप में काफी बढ़ा है और यकीनी तौर पर उस राजनीति को सामने रखता है, जो हमारे समय में हो रही है। यानी 10 फीसद आवाम की बेहतरी के लिए मुल्क के 90 फीसद लोगों की तमन्नाओं को जमींदोज करने वाली राजनीति।
अभी अभी खबर मिली कि संघ समर्थक कुछ उपद्रवियों ने अरुंधति राय के घर पर हमला किया। यह दिल्ली ही है। जहां घरों पर हमले होते हैं और मीडिया घटना से पहले टीआरपी बटोरने पहुंच जाता है। इसी कडी में गुना का वह पत्रकार याद आता है, जो रात 11 बजे एनकाउंटर की खबर मिलने पर "अपराधी" की जान बचाने के लिए रात दो बजे तक भूखे पेट, दिसंबर की सर्दी में बाइक पर घूमता है। इन दो घटनाओं की रोशनी में मीडिया के महानगरीय और आंचलिक चेहरे की लकीरें देखकर निर्णय सुनाने की जल्दबाजी में न पडते हुए मैं दिल्ली से कुछ और दूर चलता हूं। एक बडी तस्वीर को पूरा पूरा देखने के लिए दूरी जरूरी भी है।
मेरठ से ही शुरू करूं तो यही दिल्ली है, जिसके कोटला ग्राउंड में मेरठ का एक शिलालेख लगा है। इतिहास बताता है कि सम्राट अशोक ने अपने राज्यारोहण के 26वें वर्ष में मेरठ में एक स्तंभ लेख स्थापित कराया। सन् 1364 में फिरोजशाह तुगलक शिकार खेलते हुए मेरठ तक पहुंचा और वहां से यह शिलालेख उखाड़कर दिल्ली ले आया। इसे आप एक रूपक मान सकते हैं। भारत से जो चीजें इंग्लैंड गईं उन पर रोते हुए हम यह भी देखते हैं कि हिंदुस्तान के ही विभिन्न हिस्सों से चीजें दिल्ली की ओर लाई गईं। ईस्ट इंडिया कंपनी की शह पर जिस तरह उस वक्त की कंपनियां अपने 'गुलाम नागरिकों' के खिलाफ हथियार उठाती थीं, ठीक वैसी ही बंदूकें आदिवासी इलाकों में फिर तनी हुई हैं। हाथ बदले हुए हैं। उस अंग्रेजी शासन के खिलाफ बगावत की चिंगारी मेरठ में भी फूटी थी। अब फूटेगी न तो यह दावा किया जा सकता है और न ही यह यकीन होता है कि अब हालात बेहतर नहीं होंगे और जैसा चल रहा है, वैसा ही चलता रहेगा। संभावना और बदलाव एक साथ चलते हैं।
मेरठ को साथी बवाली शहर कहते हैं। अखबारी जुबान में कहूं तो हर हफ्ते यहां एक अनिश्चित लीड मिलती है। याद ही होगा आपको की मेरठ जिला ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल में भी दिल्ली सूबे के अंतर्गत ही था। 1803 में सुर्जी-अर्जन गांव की संधि के तहत दौलत राव सिंधिया ने इसे ईस्ट इंडिया कंपनी के सुपुर्द कर दिया। उस वक्त सरधना मेरठ जिले के अंतर्गत नहीं था। इतिहास के ही सिरे को फिर पकड़ें तो याद पड़ता है कि 1628 में जहांगीर की पत्नी नूरजहां ने मेरठ में हजरत शाहपीर के मकबरे का निर्माण कराया था। यह मकबरा हिंदुस्तानी स्थापत्य की अमूल्य धरोहर रहा है। मकबरे की कलाकृतियों और निर्माण को देखना अपने आप में दिलचस्प तो है ही, इससे ज्यादा दिलचस्प है इसके साथ जुड़ी दंतकथाओं को सुनना। कहा जाता है कि यह मकबरा मात्र एक रात में भूतों ने बनाया था। मकबरे के बायीं ओर औरंगजेब की बेटी जहांआरा के गुरु की कब्र भी है।
यानी मेरठ के जिस भी सिरे पर चले जाइये इतिहास अपनी बाहें पसारे आपको अपना दरीचा खोले मिलेगा। आलमगीरपुर में हड़प्पा सभ्यता के अवशेष मिलने के बाद मेरठ की प्राचीनता किसी से छिपी नहीं है। तराइन की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद 1192 ईस्वी में मुहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने मेरठ पर विजय हासिल की थी। उसके बाद ऐबक ने यहां कई निर्माण कार्य कराये। दिल्ली रोड वाला ईदगाह भी इन्हीं में से एक है। पुरातात्विक दृष्टि से यह ईदगाह अंतरराष्ट्रीय महत्व रखता है।
इस तरह मेरठ इतिहास की कई तारीखें दिलों में बैठा देता है। उम्र के दूसरे दशक में मैं क्रिकेट का दीवाना हुआ करता था और क्रिकेटीय तारीखों से ही दिन गिना कराता था। 24 अप्रैल मेरे लिए तेंदुलकर का जन्मदिन होता था। मेरठ आया तो पता चला कि 24 अप्रैल 1857 को मेरठ छावनी में स्थित तीसरी कैवेलरी के 85 सैनिकों ने परेड के के मैदान में चर्बी लगे कारतूसों को छूने से इनकार कर दिया था। उन्हें कोर्ट मार्शल के बाद 10 साल के कठोर कारावास की सजा हुई। इस घटना के बाद मेरठ में बगावत हो गई। 10 मई को तीसरी कैलेवरी के सैनिकों ने क्रांति का शंख फूंका और सशस्त्र विद्रोह कर अपने बंदी साथियों को छुड़ा लिया। साथ ही 11वीं रेजीमेंट के कमांडर को गोली मार दी। इस दौरान मेरठ के नागरिकों ने सैनिकों का पूरा सहयोग किया। जिस भैंसाली मैदान में सिपाहियों को दंडित किया गया था, वहां अब शहीद स्मारक है।
मेरठ का जिक्र चले और नौचंदी मेले की याद न आये यह संभव नहीं। यह मेला हिंदुस्तानी तहजीब की मिसाल है। एक समय में मेरठ के दंगों ने इस शहर पर लांछन लगाये पर अब उस काले हिस्से को मेरठ काफी पीछे छोड़ चुका है। विक्टोरिया पार्क अग्निकांड और ऑपरेशन मजनूं हालिया मेरठ की हकीकत हैं। जो पुराने शहर पर वक्त के असर को दिखाते हैं। विक्टोरिया पार्क हादसा जहां प्रशासनिक लापरवाही थी तो ऑपरेशन मजनूं पुलिसिया उत्साह। इन पर फिर कभी बात करेंगे।
तो दोस्तो इस बार फिर मिलते हैं मेरठ से। दो साल बाद। फर्क यह है कि संस्थान वह नहीं है, जो बीते समय में रहा। लेकिन उस गम को भुलाने के लिए साथी तो हैं, जो संस्थानों से ज्यादा प्यारे हैं।