नाम का दूसरा हिस्सा फिर खोज रहा हूं. झारखंडी, मेरठी, कानपुरी और लुधियानवी के साथ बुंदेलखंडी होने का गर्व अब कम होने लगा है. धुंधलाने लगा है. झारखंड की सी मासूम हिम्मत खो गई है. मेरठी होने का बेलौस मसखरापन भी छूट गया है और कानपुरी गप्पबाजी के लिए बेसबब आवारगी का हौसला भी नहीं बचा. लुधियानवी तो कब का रातों में जमीं से डेढ इंच ऊपर पसर गया है. हां, बुंदलेखंडी ठसक अभी पीछा नहीं छोड रही. ऐसे में इंदौर होना खतरनाक तो नहीं पर गैरजरूरी जरूर लगता है. मालवी होने की तो हिम्मत और सलाहियत सिरे से गायब है. इतने बडे खालीपन में बस इच्छाओं का ईथर बचा हुआ है. जो मुझे इंदौरी लापरवाही और भयानक खामोशी के करीब लगता है, तो क्या सचमुच में इंदौरी हो रहा हूं?
डेढ महीने बाद शहर में लौटा तो भीतर और बाहर एक जैसी खामोशी थी. भीतर की खामोशी अब तक जमा कीं बीमारियों के बलबले यकायक फूटने का नतीजा थी, लेकिन बाहर- यहां कौन सी बीमारी है. शहर में शोर है, पर मशीनों का, अपनी आवाज से मिलती आवाजें हैं, पर शक है- कि वे सचमुच यकीन की आवाजें हैं. जरा हाथ बढाना दोस्त. तुम्हारी गर्म हथेली पर क्या इसी शहर का नाम लिखा है?