कोई फर्क नहीं रह गया मेरठ और रांची में


इन दिनों जब घर लौटते हुए अंधेरा अपने पूरे कालेपन के साथ चटचटा रहा होता है, मुझे तुम्हारी याद आती है। इन दिनों जब सुबह जागते समय धूप अपने भरपूर तीखेपन के साथ आंख पर पडती है, मुझे तुम्हारी याद आती है. इन दिनों जब दोपहर का खाना खाने में महज पांच मिनट लगते हैं और कोई मेरी उंगलियों से आ रही सिगरेट की गंध पर भौहें नहीं चढाता, मुझे तुम्हारी याद आती है. इन दिनों जब दिन अपनी पहचान नहीं बताते, दोस्त अपनी परेशानियां छुपाते हैं, बच्चे पानी से बचकर चलते हैं यानी वैसा कुछ भी नहीं होता जैसा जब तुम मेरे बालों को खींचतीं थी तब होता था मैं तुम्हे याद कर रहा हूं.
अपने ही शोर से परेशान मैं, तुम्हे याद कर रहा हूं अपने पूरे स्वार्थीपने के साथ। कितना कितना संभाल लेती थीं तुम मुझे, कितना कितना सहेज लेती थीं तुम मुझे. मैं तुम्हे याद करते हुए याद कर रहा हूं कोकर के उन मकानों को जिनसे धुएं को उठता हुए देखता था मैं तुम्हारी आंखों से, याद कर रहा हूं बरियातु की पहाडी को जहां से गुजरते हुए ठिठक जाती थीं तुम. मैं याद कर रहा हूं यूरोपियन हिस्ट्री का पेपर, फिर मछलीघर, फिर पहाडी मंदिर.
क्या प्रेम में यूं होता है कि डेस्कटॉप पर लगी कोई तस्वीर याद दिला दे तुम्हारी, किसी वॉलपेपर को देखते हुए बिना किसी तुक के मैं पहुंच जाउ लालपुर और वहां से उडकर ठीक तुम्हारे सामने फिरायालाल पर घूमे हम दोनों एक दूसरे के साथ। जैसे हम सोचा करते थे कि रविवार को पूरी रांची में बस प्रेमियों को घूमने की आजादी मिलनी चाहिए. कि जैसे मंगलवार कब्जाए बैठे हैं बजरंगवली हमें भी जता देनी चाहिए रविवार पर अपनी हिस्सेदारी. क्योंकि अब मेरठ और रांची में कोई फर्क नहीं है, प्रेम यहां भी उतनी ही परेशानी में है, जितना वहां था-तुम मुझे याद आ रही हो. तुम्हारी याद में मैं क्या कर सकता हूं सिवाए इसके कि लिख दूं जो मैं तुम्हारे कानों में बेहद की गुफा से निकलती आवाज में कहता था कि - मैं तुम्हे प्यार करता हूं इतना इतना इतना कि बहुत सारा प्यार करता हूं मैं तुम्हे.