सचिन श्रीवास्तव
मजदूरों के न्यूनतम वेतन का मुद्दा एक बार फिर बहस में है। केंद्रीय श्रम मंत्रालय कॉन्ट्रेक्ट वर्कर यानी ठेका मजदूरों की न्यूनतम मासिक आय 10 हजार रुपए करने का प्रस्ताव लाने की तैयारी में है। इससे उद्योग और सेवा क्षेत्र में खासी हलचल है। इसके पक्ष और विपक्ष की लामबंदी भी नई नहीं है। फिलहाल ठेका मजदूरों या संविदा कर्मियों को 6 हजार रुपए न्यूनतम मासिक वेतन का प्रावधान है, जो कुछ ही क्षेत्रों में लागू है। श्रम मंत्रालय के प्रस्ताव के मुताबिक अब हर तरह के ठेका मजदूर को चाहे वह कोई भी काम करता हो, 10 हजार रुपए मासिक वेतन देना अनिवार्य होगा। इस मुद्दे पर पहले भी बवाल होता रहा है। 2008 में इस मुद्दे ने हिंसक रूप भी अख्तियार कर लिया था।
45 आर्थिक कार्यों के लिए न्यूनतम मासिक वेतन का प्रावधान लागू है फिलहाल
3.6 करोड़ ठेका मजदूर या संविदा कर्मी हैं देश में
32 प्रतिशत ठेका मजदूर सार्वजनिक क्षेत्र में हैं
1971 के कॉन्ट्रेक्ट लेबर (रेगुलेशन एंड एबोलिएशन) केंद्रीय नियम में बदलाव की है तैयारी
1948 में बना था देश का न्यूनतम मजदूरी एक्ट
पहले था 15 हजार का प्रस्ताव
भाजपानीत सरकार बनने के तुरंत बाद भी न्यूनतम वेतन में बढ़ोतरी को लेकर कोशिश की गई थीं। उस वक्त केंद्र सरकार न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 में संशोधन करने वाली थी। इसके लिए राज्यों के प्रतिनिधियों की बैठक भी बुलाई गई। तब मसौदे में निजी संस्थानों में न्यूनतम मासिक वेतन 15 हजार रुपए करने पर विचार किया गया था।
सही तरीके से लागू करना मुश्किल
इस कानून के संबंध में आर्थिक क्षेत्र के विशेषज्ञों का कहना है भारत जैसे देश में इस कानून को व्यावहारिक रूप में सही तरीके से लागू कर पाना काफी मुश्किल है। देश में विभिन्न क्षेत्रों में कर्मचारियों की संख्या बिखरी हुई है और कई क्षेत्रों में इसका कोई रिकॉर्ड भी नहीं है। इसलिए कानून को पूरी तरह लागू करना संभव नहीं हो पाता है।
बड़े शहरों में कम होंगे रोजगार
सरकार के इस प्रस्ताव से कारोबारी हलकों में बेचैनी है। न्यूनतम मासिक वेतन के आलोचकों का कहना है कि इस नियम के प्रस्ताव पर ठीक ढंग से विचार नहीं किया गया है। इसका छोटो राज्यों में रोजगार पर विपरीत असर पड़ेगा। इस कदम से रोजगार बड़े शहरों से बाहर जाएंगे। आलोचकों का कहना है कि इस कदम के बजाय सरकार को अन्य रोजगार बढ़ाने की दिशा में काम करना चाहिए।
कानून के दायरे से ज्यादातर बाहर
देश में कॉन्ट्रेक्ट लेबर की संख्या के बारे में कई अनुमान हैं। केंद्रीय श्रम मंत्रालय की स्वायत्त संस्था वीवी गिरि नेशनल लेबर इंस्टीट्यूट के मुताबिक, देश में 3.6 करोड़ कॉन्ट्रेक्ट लेबर हैं। इनमें से महज 60 लाख कर्मचारी ही कॉन्ट्रेक्ट लेबर एक्ट 1971 के दायरे में आते हैं। इसी इंस्टीट्यूट के अध्ययन के मुताबिक, 30 प्रतिशत संविदा कर्मी निजी क्षेत्र में हैं, जबकि 32 प्रतिशत सरकारी क्षेत्र में किसी अन्य संस्था के अंतर्गत कार्यरत हैं।
समान काम के लिए बराबर वेतन
1971 के केंद्रीय कानून के तहत कॉन्ट्रेक्ट लेबर का मासिक भुगतान न्यूनतम वेतन एक्ट 1948 के आधार पर तय किया जाएगा। इसके अनुसार एक नियमित कर्मचारी को उसी प्रवृत्ति के काम के लिए जितना वेतन दिया जाता है, वही वेतन कॉन्ट्रेक्ट लेबर को देने का नियम है।
कॉन्ट्रेक्ट लेबर हैं, अन्य के मुकाबले गरीब
राष्ट्रीय सेंपल सर्वे के मुताबिक, देश में कॉन्ट्रेक्ट लेबर, नियमित कर्मचारियों के मुकाबले गरीब हैं। हाल ही में आए नतीजे के मुकाबले देश के विभिन्न क्षेत्रों में दोनों वर्गों की आय में 15 से 30 प्रतिशत तक का फर्क है।
लघु उद्योगों को होगी मुश्किल
विशेषज्ञों का कहना है कि नए प्रस्ताव के कानून बनने से लघु उद्योगों को खासी परेशानी होगी। लघु और मध्यम श्रेणी की कंपनियां बेहद कम लाभ पर काम करती हैं। ऐसे में वे अपने कर्मचारियों से बढ़ी वेतन दरों पर काम कराने में सक्षम नहीं होंगी। बड़ी कंपनियों के लिए मुफीद स्थिति होगी। छोटी कंपनियों से आने वाले रोजगार उनके लिए किफायती होंगे।
मजदूर संगठनों में नहीं एकता
सरकार के इस प्रस्ताव पर मजदूर संगठनों में दो राय हैं। आरएसएस से संबद्ध भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने इस कदम का स्वागत किया है, वहीं वाम दलों के मजदूर संगठनों ने इसका विरोध किया है। वाम संगठनों का कहना है कि कॉन्ट्रेक्ट लेबर्स को नियमित कर्मचारियों के बराबर वेतन दिय जाना चाहिए।
यह एक अच्छा कदम है। इससे सभी क्षेत्रों के कॉन्ट्रेक्ट वर्कर्स को 10 हजार रुपए की राशि न्यूनतम वेतन के रूप में हर महीने मिलना सुनिश्चित किया जा सकेगा। कई राज्यों में अकुशल मजदूरों को इससे काफी कम वेतन दिया जाता है।
वृजेश उपाध्याय, महासचिव, भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस)
हम इस प्रस्ताव का विरोध करते हैं। कॉन्ट्रेक्ट वर्कर्स को नियमित कर्मचारी के बराबर वेतन मिलना चाहिए और मौजूदा कानून को प्रभावी बनाना चाहिए। यह कंपनियों को समान काम के लिए न्यूनतम वेतन 10 हजार रुपए करने की आजादी देता है।
डीएल सचदेव, महासचिव, ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक)
मजदूरों के न्यूनतम वेतन का मुद्दा एक बार फिर बहस में है। केंद्रीय श्रम मंत्रालय कॉन्ट्रेक्ट वर्कर यानी ठेका मजदूरों की न्यूनतम मासिक आय 10 हजार रुपए करने का प्रस्ताव लाने की तैयारी में है। इससे उद्योग और सेवा क्षेत्र में खासी हलचल है। इसके पक्ष और विपक्ष की लामबंदी भी नई नहीं है। फिलहाल ठेका मजदूरों या संविदा कर्मियों को 6 हजार रुपए न्यूनतम मासिक वेतन का प्रावधान है, जो कुछ ही क्षेत्रों में लागू है। श्रम मंत्रालय के प्रस्ताव के मुताबिक अब हर तरह के ठेका मजदूर को चाहे वह कोई भी काम करता हो, 10 हजार रुपए मासिक वेतन देना अनिवार्य होगा। इस मुद्दे पर पहले भी बवाल होता रहा है। 2008 में इस मुद्दे ने हिंसक रूप भी अख्तियार कर लिया था।
45 आर्थिक कार्यों के लिए न्यूनतम मासिक वेतन का प्रावधान लागू है फिलहाल
3.6 करोड़ ठेका मजदूर या संविदा कर्मी हैं देश में
32 प्रतिशत ठेका मजदूर सार्वजनिक क्षेत्र में हैं
1971 के कॉन्ट्रेक्ट लेबर (रेगुलेशन एंड एबोलिएशन) केंद्रीय नियम में बदलाव की है तैयारी
1948 में बना था देश का न्यूनतम मजदूरी एक्ट
पहले था 15 हजार का प्रस्ताव
भाजपानीत सरकार बनने के तुरंत बाद भी न्यूनतम वेतन में बढ़ोतरी को लेकर कोशिश की गई थीं। उस वक्त केंद्र सरकार न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 में संशोधन करने वाली थी। इसके लिए राज्यों के प्रतिनिधियों की बैठक भी बुलाई गई। तब मसौदे में निजी संस्थानों में न्यूनतम मासिक वेतन 15 हजार रुपए करने पर विचार किया गया था।
सही तरीके से लागू करना मुश्किल
इस कानून के संबंध में आर्थिक क्षेत्र के विशेषज्ञों का कहना है भारत जैसे देश में इस कानून को व्यावहारिक रूप में सही तरीके से लागू कर पाना काफी मुश्किल है। देश में विभिन्न क्षेत्रों में कर्मचारियों की संख्या बिखरी हुई है और कई क्षेत्रों में इसका कोई रिकॉर्ड भी नहीं है। इसलिए कानून को पूरी तरह लागू करना संभव नहीं हो पाता है।
बड़े शहरों में कम होंगे रोजगार
सरकार के इस प्रस्ताव से कारोबारी हलकों में बेचैनी है। न्यूनतम मासिक वेतन के आलोचकों का कहना है कि इस नियम के प्रस्ताव पर ठीक ढंग से विचार नहीं किया गया है। इसका छोटो राज्यों में रोजगार पर विपरीत असर पड़ेगा। इस कदम से रोजगार बड़े शहरों से बाहर जाएंगे। आलोचकों का कहना है कि इस कदम के बजाय सरकार को अन्य रोजगार बढ़ाने की दिशा में काम करना चाहिए।
कानून के दायरे से ज्यादातर बाहर
देश में कॉन्ट्रेक्ट लेबर की संख्या के बारे में कई अनुमान हैं। केंद्रीय श्रम मंत्रालय की स्वायत्त संस्था वीवी गिरि नेशनल लेबर इंस्टीट्यूट के मुताबिक, देश में 3.6 करोड़ कॉन्ट्रेक्ट लेबर हैं। इनमें से महज 60 लाख कर्मचारी ही कॉन्ट्रेक्ट लेबर एक्ट 1971 के दायरे में आते हैं। इसी इंस्टीट्यूट के अध्ययन के मुताबिक, 30 प्रतिशत संविदा कर्मी निजी क्षेत्र में हैं, जबकि 32 प्रतिशत सरकारी क्षेत्र में किसी अन्य संस्था के अंतर्गत कार्यरत हैं।
समान काम के लिए बराबर वेतन
1971 के केंद्रीय कानून के तहत कॉन्ट्रेक्ट लेबर का मासिक भुगतान न्यूनतम वेतन एक्ट 1948 के आधार पर तय किया जाएगा। इसके अनुसार एक नियमित कर्मचारी को उसी प्रवृत्ति के काम के लिए जितना वेतन दिया जाता है, वही वेतन कॉन्ट्रेक्ट लेबर को देने का नियम है।
कॉन्ट्रेक्ट लेबर हैं, अन्य के मुकाबले गरीब
राष्ट्रीय सेंपल सर्वे के मुताबिक, देश में कॉन्ट्रेक्ट लेबर, नियमित कर्मचारियों के मुकाबले गरीब हैं। हाल ही में आए नतीजे के मुकाबले देश के विभिन्न क्षेत्रों में दोनों वर्गों की आय में 15 से 30 प्रतिशत तक का फर्क है।
लघु उद्योगों को होगी मुश्किल
विशेषज्ञों का कहना है कि नए प्रस्ताव के कानून बनने से लघु उद्योगों को खासी परेशानी होगी। लघु और मध्यम श्रेणी की कंपनियां बेहद कम लाभ पर काम करती हैं। ऐसे में वे अपने कर्मचारियों से बढ़ी वेतन दरों पर काम कराने में सक्षम नहीं होंगी। बड़ी कंपनियों के लिए मुफीद स्थिति होगी। छोटी कंपनियों से आने वाले रोजगार उनके लिए किफायती होंगे।
मजदूर संगठनों में नहीं एकता
सरकार के इस प्रस्ताव पर मजदूर संगठनों में दो राय हैं। आरएसएस से संबद्ध भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने इस कदम का स्वागत किया है, वहीं वाम दलों के मजदूर संगठनों ने इसका विरोध किया है। वाम संगठनों का कहना है कि कॉन्ट्रेक्ट लेबर्स को नियमित कर्मचारियों के बराबर वेतन दिय जाना चाहिए।
यह एक अच्छा कदम है। इससे सभी क्षेत्रों के कॉन्ट्रेक्ट वर्कर्स को 10 हजार रुपए की राशि न्यूनतम वेतन के रूप में हर महीने मिलना सुनिश्चित किया जा सकेगा। कई राज्यों में अकुशल मजदूरों को इससे काफी कम वेतन दिया जाता है।
वृजेश उपाध्याय, महासचिव, भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस)
हम इस प्रस्ताव का विरोध करते हैं। कॉन्ट्रेक्ट वर्कर्स को नियमित कर्मचारी के बराबर वेतन मिलना चाहिए और मौजूदा कानून को प्रभावी बनाना चाहिए। यह कंपनियों को समान काम के लिए न्यूनतम वेतन 10 हजार रुपए करने की आजादी देता है।
डीएल सचदेव, महासचिव, ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक)