यूँ तो कविताई संवेदनशील लोगों का काम है, लेकिन मैंने भी अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत में कविता से मुडभेड की थी । शायद उन दिनों संवेदनाएँ जीवित थीं । इधर के दिनों में तो अखबारों ने मनुष्यता का यह सहारा भी छीन लिया । कल भाई सौरव सुमन ने मुझे याद दिलाया कि पत्रकारिता में मुझे कवि नाम से भी पुकारा जाता रहा है ।
प्रभात खबर में काम करते हुये मुझे याद नहीं पड़ता कि श्री बैजनाथ मिश्रा जी ने कभी मुझे सचिन नाम से पुकारा हो वे
कविराज कहकर ही पुकारते थे । उनका यह आत्मीय संबोधन आज भी मुझे अपने मनुष्य होने के विश्वास से भर देता है । दिसंबर 2003 में रांची में पुस्तक मेले में बैजनाथ जी ने मंच पर भी पहुंचा दिया था । तब डरते डरते कुछ कवितायेँ पडी थीं मंच पर पहली बार । अविनाश जी ने काफी हौंसला अफजाई की थी । लेकिन फिर कभी हिम्मत नहीं पडी । दूसरी बार मेरी कवितायेँ (अगर वे सचमुच कवितायेँ हैं तो) सार्वजानिक करने में फिर अविनाश जी की "खुरापात" रही । उन्होंने अरुण नारायण को उकसाया और प्रभात खबर में कविता प्रकाशित हुई । इसके अलावा कवि रुप में नवभारत, भोपाल में अखिलेश्वर पाण्डेय ने छापा । यह भूमिका महज़ इसलिये क्योंकि मुझे अपने को कवि कहे जाने पर संकोच होता है । मुझे लगता है कि मुझमें वह योग्यता नहीं है जो एक कवि जीवन के लिए जरूरी है । फिर भी हिम्मत कर कुछ सामने रख रहा हूँ यह कविता भोपाल में पत्रकारिता की पढाई के दौरान लिखी थी । अच्छी लगे तो सराहें, कच्चापन हो तो माफ़ करें और महज़ एकालाप हो तो बता दें आगे से ऎसी कोशिश ना करूंगा ।
सपनों का रथ
इतने करीब से गुजरता है
कि बस अब हो गया जन्म सफल
लंबी लंबी रातों और उनके टुकड़ों में
पानी पीने और मूतने की उबाऊ प्रक्रिया के बीच
कोई ना कोई हिस्सा
मिल जाता है सपनों से बचा
मिला लेते हैं उसे
सपनों की फेहरिस्त में !
रात का पूरा कालापन
डरा नहीं पाता
अपने बेरोजगार अँधेरे को
सूरज के इंतज़ार में
बिना बतियाये ही हंसकर काट देते हैं
इतनी जल्दी में होता हैं सब कुछ
कि मन से अछूती रह जाती हैं समय की चौहाद्दी
बस एक रील की तरह
पहिये की गति से
गड्ड-मड्ड सा घूम जाता है
पूरा एकांत
व्यवहार इतना रहस्यमय होता हैं
कि ना वह चकित करता है
ना लगता है एकदम सोच समझा !
धरती के हर हिस्से में
एक साथ चीखने की आजादी को भुनाकर
धीरे धीरे दारुण रुदन चलता है!
बेरंग चित्र में असामंजस्य
और बेतरतीब फुहारें
कोने घेरती हैं
चुपके से कोई प्रेमिका आकर
गाल पर चिकोटी काट जाती है
प्रेम कर नहीं सकते
अन्य दुस्साहसों के हिज्जे ठीक नहीं !
बस एक सनक और नक़ल में
साबित करने की होड़ लगाते हैं
मुर्दा दिमागों से
पूरे के पूरे द्रश्य में एकरूपता बनी चली आती है
ना घेर पाते हैं आकाश
धरती में अपनी विरासत में मिली जगह !
भरना था हर जगह का खालीपन
भर रहे हैं बिखराव और भटकाव
कभी कभी जब कोई आगे वाले की उंगली पकड़कर
करना चाहता है बवंडर पार
रात 12 और 2 तक उड़ाते हैं उसका मज़ाक
धीरे धीरे जिन सपनों से शुरू हुये थे
उन्हें बेचने की जुगत भिडाते हैं
और शामिल हो जाते हैं
घिचपिच बाज़ार में !!