कल जो कविता डाली थी उस पर टिप्पणियाँ तो आपने देख हीं लीं हैं । कुछ मित्रों ने फोन भी किया. उत्साहित हूँ सो एक और पेल रह हूँ. यह जालंधर में लिखी थी. शायद मार्च 2003 था । लीजिये चाखिये जरा.
जहाँ में खड़ा हूँ
वहां से दिख रहीं हैं
स्कूल आती जाती लडकियां
पहले इनकी जगह दूसरी लडकियां गुज़रती थीं यहाँ से
इनके बाद कोई दूसरी गुज़रेंगी
इस सच से अनजान और लापरवाह लडकियां
खिलखिला रहीं हैं
चुहल कर रहीं हैं
(जैसे कह रहीं हों )
देखो हमारा हौंसला
बुरे से बुरे वक़्त में हंस सकती हैं लडकियां
इन्हें पता है कि
एक एक कर विदा हो जायेंगी वे
अपने भाइयों के घरों से
जो हिम्मती होंगीं
वे चुन लेंगीं
अपनी पसंद का लड़का
बाकी माँ बाप की मजबूरी और हैसियत
गले में लटकाकर
चल देंगीं भाइयों के घरों से निकलकर
अदेखे चेहरों के पीछे
क्या सचमुच इन्हें भय नहीं है ?
इनके उजास और भरे चहरे
गृहस्थी के चरखे में घूमकर लटक जायेंगे
ये लडकियां सास के दुलार और दुत्कार को
एक भाव से लेकर
खटती रहेंगी
बच्चों की पैदाइश में ढीली होकर
झेलती रहेंगी पति की उपेक्षा और दंभ
ऐसा ही होता रहा है
होगा
और (शायद) होता रहेगा !!
सब कुछ जानते हुये भी
खिलखिला रहीं हैं
हंस रहीं हैं
चुहल रहीं हैं
बेपरवाह, बेफिक्र,........ बेशर्म !!
स्कूल से आती जाती लडकियां .