अभी तीन चार दिन पहले की बात है. एक मित्र का फोन आया.. हाल चाल पूछने के बाद उन्होंने फोन करने का मंतव्य बताया. वे मेरे ब्लॉग पर पिछले दिनों आईं पोस्टों से हैरान थे.. मुझे लताडा... गरियाया और फिर मशविरा दिया कि कुछ बेहतर, ढंग का लिखो.. मैंने मासूमियत से पूछा कि - वह कैसे लिखा जाता है... तो फिर भडक गए और मेरे साथ पूरी ब्लॉग बिरादरी की 'रिश्तेदारी' पर ऐसी तैसी फेरते हुए बताया कि आवाम से जुडे मुद्दों पर लिखो, आंध्रा के किसानों से झारखंड के आदिवासियों और मुंबई के मजदूरों से पंजाब के पैसे तक कई विषयों तक उन्होंने मुझे दीक्षित किया... वे बोल रहे थे और मुझे पहलू वाले चंद्रभूषण जी याद आ रहे थे.. वे कहे थे- "अगर हम कश्मीरी अवाम- चाहे वह मुस्लिम हो या हिंदू- के दुख-सुख में हिस्सेदारी नहीं कर सकते तो हमें कश्मीर का नाम लेने का भी कोई हक नहीं है।"
इस वाक्य में बस विवरण बदल दिए जाएं तो न तो मैं झारखंड पर बात कर सकता हूं न मुझे गुजरात पर बोलने का हक है.. भूख, भ्रष्ट्राचार, गरीबी जैसे सनातन मसलों पर राय देना भी मेरे बस का रोग नहीं है... असल में मैं कमाने, खाने, गंवाने वाला एक निहायत ही "शानदार जीवनशैली" का इंसान हूं और जो लोग मुझसे किसी खास किस्म की उम्मीद लगाए बैठे हैं उनसे मैं नजर मिलाने के काबिल नहीं हूं.. मैं बेहद विनम्र भाव से कहना चाहता हूं कि - महोदय यदि आप मेरी पोस्टों में वह सब नहीं देखते जो मुझसे अपेक्षा की जाती है तो मुझे माफ कर दें... यह मेरी गलती नहीं है कि मैं आपकी समझ से बेहतर ढंग का नहीं लिख रहा... आपने गलत व्यक्ति से अपेक्षाएं पाली हैं.. मैंने कभी किसी तरह का दावा नहीं किया कि मैं अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को निबाहूंगा... अब देखिए न ऊपर दिए गए चंद्रभूषण जी के वाक्य को भी मैं तर्क की तरह इस्तेमाल कर रहा हूं.. इसी तरह का एक तर्क गालिब ने मुहैया कराया है- फिक्र ए दुनिया में सर खपाता हूं मैं कहां और ये बवाल कहां
तो मित्रों आगे से नई इबारतें पर किसी किस्म की उम्मीद के साथ न आएं इसकी पोस्टों में वही मिलेगा जो आप लोगों से सीख रहा हूं यानी होशियारी...
शब्बा खैर