"मस्तराम" नहीं रहे


यह खबर जब मुझे मिली तब तक "मस्तराम" को यह दुनिया छोडे हुए तीन दिन हो चुके थे. मिलने जुलने वालों ने बताया कि अंतिम समय में वे खुद को कोस रहे थे. यूं मस्तराम का असली नाम कुछ और है.. लेकिन वे लिखाई पढाई के हल्के में हल्की सी तिरछी हंसी के साथ "मस्तराम" के नाम से ही जाने जाते थे. असल में यह नाम उन्होंने खुद नहीं चुना था. आर्थिक तंगी के दिनों में कुछ चटखारेदार सवाल पूछने की कला ने उन्हें आगरा के प्रकाशन उद्योग का दरवाजा दिखाया और वहीं से उन्हें दिल्ली मैं रहने की सलाह मिली. उसके बाद मस्तराम के साथ वह कई तरह की कलाबाजियां दिखाते रहे. जो उन्हें जानते हैं उनके बीच कई उनकी "खूबी" से परिचित नहीं हैं. इसलिए उनका असली नाम मैं यहां जाहिर नहीं कर रहा हूं. उन्ही के माध्यम से पता चला कि इसी नाम से कई और लोग भी पच्हत्तर रुपए प्रति प्रश्न की दर पर लिखते हैं.

मस्तराम को उनके असली नाम से बुलाने की जिद में कई बार मैंने उन्हें घेरा लेकिन कभी उन्होंने नहीं बताया. बहुत बाद में एक सार्टिफिकेट देखते हुए उनके जनेऊधारी नाम से पहचान हुई. जब भी वे मिले आर्थिक तंगी से जूझते रहे. चटखारेदार सवाल लिखकर पैसा कमाने का रास्ता उन्होंने कुछ मुसीबतों से उबरने के लिए चुना था और फिर कई वर्षों तक उससे बाहर नहीं आ सके. यूं अपने समय के कई अन्य लोगों की तरह वे भी लेखन को विशुद्ध पैसा कमाने का पैसा मानते थे. हालांकि जयशंकर प्रसाद की कई पंक्तियों को वे सुरीली आवाज में लयबद्ध ढंग से गुनगुनाते थे और मुक्तिबोध को हद से ज्यादा पसंद करते थे. बात बेबात कई जगह परसाई को कोट भी करते थे और कई सारे अंग्रेजी लेखकों के बारे में गहन जानकारी रखते थे, जिनके नाम उनके मुंह से सुनने के बाद मैं भूल जाया करता था. कई बार उनसे अपनी कमजोर अंग्रेजी के लिए फटकार सुनी और ही ही करके बात टाल दी.

अपने आखिरी वक्त में चाचू (यह भी एक नाम था जिससे उन्हें पुकारा जाता था) बेहद अकेले थे. दीवारों को घूरते हुए वह खुद को कोसते थे और जो मौत वे हर वक्त मर रहे थे उसके लिए उन बापों की बद्दुआओं को जिम्मेदार मानते थे जिनके बेटे उनका साहित्य पढकर दूसरी राह पर चल निकले या फिर एक समय को बरबाद कर लिया. 14 से 22 के बीच के लोगों में खूब पढे गुने गए मस्तराम जी अब हमारे बीच नहीं है. मेरे लिए तो यह निजी क्षति है. आपके लिए??????