पिछले दिनों भोपाल में था मैं. कुछ पारिवारिक दिक्कतों से फारिग होकर माखनलाल यूनिवर्सिटी पहुंचा. ऐसा हमेशा होता है. भोपाल के दौरे में से दो चीजों के लिए वक्त जरूर चुराता हूं. माखनलाल और लालघाटी. आज बात माखनलाल की.
मेरे समय का विवि अब यहां नहीं रहा. बिल्डिंग बदल गई है. सात नंबर स्टॉप से प्रेस कॉम्पलेक्स आते हुए यूनिवर्सिटी ने कई चीजों छोडी हैं.. नई चीजों की जगह बनाने के लिए ही... शायद... इस बदलाव पर हम बात कर चुके हैं.
इस बार भी यहां एक पुरसुकून माहौल था. एक बदलाव और देखा था.. "पत्रकार क्यों बनना चाहते हो?" यह सवाल इस क्षेत्र के हर नवांगतुक से थोडे बहुत हेरफेर के साथ कभी न कभी जरूर पूछा जाता है. हमसे भी पूछा गया था. मेरे साथियों के साथ मैंने भी कुछ रटे रटाए जुमलों को जवाब की शक्ल दी थी- "समाज के लिए कुछ बेहतर करना है", "अपने इस तरीके से दुनिया में पैदा हुई खामियां ठीक करने की कोशिश", "भ्रष्टाचार को बेपर्दा करना है", "कमजोरों की मदद"........ जैसे बयान थे हमारे.
चाहते हुए भी हम झूठ नहीं बोल रहे थे. अच्छे अच्छे जवाब देने की कोशिश तो थी लेकिन कहीं न कहीं वह जज्बा था. पता नहीं न्यूज रूम की भागदौड और प्रेशर के बीच अब कही कुछ कम हुआ है. बीच के रास्ते खोजे हैं बाजार से तालमेल बैठाने के. कुछ छोटी मोटी लडाइयां भी लडीं. और हथियार भी डाले.. भारी मन से नहीं गलबहियां करते हुए. खैर.
तो उन जवाबों में क्या था. क्या वह सुनने वालों को हौसला देते होंगे. बिल्कुल. इस बार माखनलाल में खुद में ये जवाब सुनकर भरोसे की दीवार से टिक गया था. हालांकि उन चेहरे पर उतना आत्मविश्वास न पाकर और उनकी मासूमियत देखकर कुछ दरक भी रहा था. भीतर से... ये लोग जल्द हथियार डालेंगे या फिर खेत हो जाएंगे.
माखनलाल में नए साथियों से जब मैंने वही सनातन सवाल पूछा था तो कुछ हेरफेर के साथ वही जवाब मिले थे. इक्का दुक्का जवाब- "यह भी एक फील्ड है, जिसमें कैरियर बनाया जा सकता है" थे, लेकिन उनके भीतर की अराजकता चेहरे से टपक रही थी.
खैर रचनात्मकता की एक दिलचस्प जादूबयानी वाला मामला अलग कर दिया जाए, तो क्या यह जवाब हौसला नहीं देते.. अपनी तमाम खामियों के बीच पत्रकारिता वहां पनप रही है. वहां कुछ कदम पांव ले रहे हैं. क्या उन कदमों के लिए ये पहाड पीछे सरकेंगे, नदियां रास्ता देंगीत.. देखते हैं..
.... एक बात और माखनलाल के नए विद्यार्थियों ने एक ब्लॉग बनाया है. अभी इस पर कुछ लिखा नहीं गया है. पर उम्मीद की जानी चाहिए कि पत्रकारिता के नए तेवर की बानगी यहां मिलेगी.. उत्साह तो आप लोग बढाएंगे ही..
मेरे समय का विवि अब यहां नहीं रहा. बिल्डिंग बदल गई है. सात नंबर स्टॉप से प्रेस कॉम्पलेक्स आते हुए यूनिवर्सिटी ने कई चीजों छोडी हैं.. नई चीजों की जगह बनाने के लिए ही... शायद... इस बदलाव पर हम बात कर चुके हैं.
इस बार भी यहां एक पुरसुकून माहौल था. एक बदलाव और देखा था.. "पत्रकार क्यों बनना चाहते हो?" यह सवाल इस क्षेत्र के हर नवांगतुक से थोडे बहुत हेरफेर के साथ कभी न कभी जरूर पूछा जाता है. हमसे भी पूछा गया था. मेरे साथियों के साथ मैंने भी कुछ रटे रटाए जुमलों को जवाब की शक्ल दी थी- "समाज के लिए कुछ बेहतर करना है", "अपने इस तरीके से दुनिया में पैदा हुई खामियां ठीक करने की कोशिश", "भ्रष्टाचार को बेपर्दा करना है", "कमजोरों की मदद"........ जैसे बयान थे हमारे.
चाहते हुए भी हम झूठ नहीं बोल रहे थे. अच्छे अच्छे जवाब देने की कोशिश तो थी लेकिन कहीं न कहीं वह जज्बा था. पता नहीं न्यूज रूम की भागदौड और प्रेशर के बीच अब कही कुछ कम हुआ है. बीच के रास्ते खोजे हैं बाजार से तालमेल बैठाने के. कुछ छोटी मोटी लडाइयां भी लडीं. और हथियार भी डाले.. भारी मन से नहीं गलबहियां करते हुए. खैर.
तो उन जवाबों में क्या था. क्या वह सुनने वालों को हौसला देते होंगे. बिल्कुल. इस बार माखनलाल में खुद में ये जवाब सुनकर भरोसे की दीवार से टिक गया था. हालांकि उन चेहरे पर उतना आत्मविश्वास न पाकर और उनकी मासूमियत देखकर कुछ दरक भी रहा था. भीतर से... ये लोग जल्द हथियार डालेंगे या फिर खेत हो जाएंगे.
माखनलाल में नए साथियों से जब मैंने वही सनातन सवाल पूछा था तो कुछ हेरफेर के साथ वही जवाब मिले थे. इक्का दुक्का जवाब- "यह भी एक फील्ड है, जिसमें कैरियर बनाया जा सकता है" थे, लेकिन उनके भीतर की अराजकता चेहरे से टपक रही थी.
खैर रचनात्मकता की एक दिलचस्प जादूबयानी वाला मामला अलग कर दिया जाए, तो क्या यह जवाब हौसला नहीं देते.. अपनी तमाम खामियों के बीच पत्रकारिता वहां पनप रही है. वहां कुछ कदम पांव ले रहे हैं. क्या उन कदमों के लिए ये पहाड पीछे सरकेंगे, नदियां रास्ता देंगीत.. देखते हैं..
.... एक बात और माखनलाल के नए विद्यार्थियों ने एक ब्लॉग बनाया है. अभी इस पर कुछ लिखा नहीं गया है. पर उम्मीद की जानी चाहिए कि पत्रकारिता के नए तेवर की बानगी यहां मिलेगी.. उत्साह तो आप लोग बढाएंगे ही..