माफी : एक कविता के बहाने

मैं कविताएं नहीं लिखता इसलिए कवि भी नहीं हूं. लेकिन तब क्या किया जाए जब कोई कविता आसपास घुमडती रहे. लगातार. जिद करती हुई कि मुझे लिखो. यह अक्सर होता है. दिमाग पर सवार ऐसी कविताएं लगातार दूसरे कामों को टालने की जिद करती हैं और दिलचस्प है कि कई बार तो वे वक्त भी बतातीं हैं उन्हें लिखने का. जिसे हम सुविधानुसार खाली समय या फिर रचनात्मक समय का नाम दे सकते हैं. मुझे तो यह लगता है कि कोई कवि भी कविता लिखना नहीं चाहता. वह गप्पें मारना चाहता है, लोगों की तकलीफें देखकर बेहद उदास नजरों से अपने वक्त को ताकना चाहता होगा या फिर बेहद छोटी छोटी खुशियों के साथ थोडा वक्त गुजारकर अपनी हंसी को उंडेल देता होगा, कवि. कविता लिखना तो उसकी जरूरत भी नहीं है, जो कवि है. कविता तो हर वक्त ढूंढती है कि कोई उसे लिख दे तो चैन मिले भटकन से. मेरी बात से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन अभी अभी बहुत दूर चक्कर काट रही है वह कविता कभी आपके सामने आ गई तो क्या करेंगे? उसे लिखे बिना काम नहीं चलेगा जैसे बीते तीन हफ्तों ने इस कविता ने मेरी नाक में दम किया हुआ था. इसे लिखकर कुछ सुकून मिला है. तब तक के लिए जब तक कि कोई और कविता सिर पर सवार नहीं होती.
माफी
हमें माफी मांगनी थी
अपने दोस्तों से
जिन्होंने जिंदगी के सपाट रास्तों पर
बिछकर गुजारीं
खुशियों की जगमग दोपहरें
जिन्होंने जतन से टांके लगाये
दुखों के फटे चिथडों पर

हम सचमुच माफी चाहते थे
गहरी नींद में
भविष्य की बुनावट के रेशे तलाशते दोस्तों से
हम जिन्होंने
उम्र की पगडंडी पर कभी तेज दौड लगाई
कभी बेकार सुस्ती में अलमस्त जमाई ली
और कभी खुशियों का गट्ठर उछाल दिया
तारों की ओर

हम माफी के हकदार नहीं थे
और हमें माफी चाहिए थी
दोस्तों से
बिना झिझक और शर्मिंदगी के
आंखों में आंखें डालकर माफी चाहते थे हम
जीवन की नयी लय तलाशने की सजा मुकर्रर होने के ठीक पहले