दस साल पहले के वे साथी जिनके साथ पढऩा-लिखना शुरू किया था अब दीगर धंधों में उलझ गये हैं और ज्यादातर के पास पढऩे का वक्त नहीं है। उनसे कमोबेश खुद को बेहतर मानने की जिद में यह संतोष रहता है कि पढऩे-लिखने के धंधे से जुड़े हैं। लेकिन असल में यह भी एक भ्रम ही है। पत्रकारिता आपको पढऩे का वक्त नहीं देती। अपना खुद का ही उदाहरण देखूं तो रांची में था तो पढऩे का कुछ वक्त मिलता था लेकिन उसके बाद सचमुच ऑफिस से पढऩे के लिए वक्त चुराना मुश्किल काम होता गया है।
दूसरी बात पढऩे को हिंदी के अखबारी ऊब से भरे दफ्तरों में काम ही नहीं माना जाता। आप कोई खबर लिख रहे हैं, तो ठीक वरना अगर नेट पर भी कुछ पढ़ रहे हैं या साथ लाई कोई किताब (हालांकि यह चलन अपनी अंतिम सांसें ले रहा है) का पन्ना खोल रखा है तो बगल वाले को चाय-सिगरेट का ऑफर देते कोई संकोच नहीं होगा। अजीब है पढऩे के प्रति ऐसी बेगैरती। बहरकैफ।
इंदौर में एक शुरुआत की थी कि अखबारी खबरों के अलावा कुछ और जो भी पढ़ेंगे उसे शेयर करेंगे। शुरुआती उत्साह के बाद वह प्रयोग काम के दबाव के बीच दम तोड़ चुका था। मेरी खुद की मजबूरी यह है कि बीते चार साल से महज लांचिंग टीम का हिस्सा होना तकरीबन हिंसक बना चुका है। साथ ही लगातार लांचिंग की हड़बड़ाहट पटरी पे आती चीजों के प्रति कोफ्त भी पैदा करती है। जैसे लांचिंग के बाद सब कुछ ढर्रे पर आने, सब सेट हो जाना अखरता है। अराजकता के प्रति मोह की यह भी एक बड़ी वजह है। और नये रास्ते का मजा फिर लेने को जी चाहता है। हालांकि हिंदी पत्रकारिता की दिक्कत कह लीजिए या दबाव लेकिन दरहकीकत हम कुछ नया कर ही नहीं रहे।
एक सामान्य व्यक्ति भी जानता है कल का अखबार किस रंग का होगा। राजनीति, क्राइम, घोटाले, क्रिकेट और थोड़ा बहुत इधर-उधर हुआ तो बस एक पानी बचाओ, धरती बचाओ अभियान टाइप कुछ और बची हुई जगह में फिल्में। या फिर कब हुआ, कैसे हुआ, उस विषय के विद्वानों से बातचीत, कुछ पुराने आंकड़े और यह था मामला टाइप टैग्स के सहारे अपनी रचनात्कता को बचाने की औनी पौनी कोशिशें न्यूज रूम का रोज का किस्सा हैं। हालांकि इस रास्ते पर चलते हुए हिंदी अखबार कितना आगे बढ़ेंगे इसका अंदाजा फिलवक्त मुश्किल है। लेकिन हम अपने बारे में तो तय कर सकते हैं। खुद के बारे में यह तय करना मुश्किल काम है कि इस भीड़ में इस ऊब में शामिल नहीं होना है।
एक प्रचलित रूपक जिसे न्यूज रूमों के बीच खूब दोहराया है, याद दिला दूं। एक सड़क है खूब चौड़ी दायीं तरफ बिल्कुल चकाचक एक भी गड्डा नहीं फिसलते हुए चले जायें कोई खतरा नहीं और दूसरी तरफ गड्डे, धूल और कांटे। जाहिर है कि दांयी तरफ भीड़ ज्यादा होगी। लेकिन दूसरी तरफ नये रास्ते के संकट हैं। किस तरफ चलना पसंद करेंगे? मैंने जब इस तरफ बिल्कुल बराबर में चलना कुबूल किया है तो इसकी खूबियों खामियों को भी परखा। असल में यह पत्रकारिता की मुख्यधारा ही है, लेकिन हमने इस पर बुलडोजर नहीं चलाया और काफी दिनों से ध्यान नहीं दिया इसलिए इस तरफ की सड़क कुछ खराब हो गई है। यकीन मानिये मुख्यधारा में रहते हुए बाजार के साथ कदमताल करते हुए इस सड़क पर दौड़ा जा सकता है। बस आपको गड्डों में छलांग लगाना आना चाहिए।
बात थोड़ी और साफ हो जायेगी। फिर पीछे लौटते हैं उस उकताहट पर। हमसे पहले भी पत्रकारिता में कोई बहुत उत्साही माहौल तो नहीं। तब भी खबरों में एकरसता थी। हर वक्त की मुख्यधारा एकरसता से ग्रस्त होती ही है। तब ये ऊब क्यों? क्या हमसे पहले के पत्रकारों यानी हमारे अग्रजों में यह ऊब नहीं थी। थी और हमसे ज्यादा थी। लेकिन उनके पास अखबारी काम के बीच अपने लिए पढऩे लिखने के लिए समय था। या कि वे समय चुरा लेते थे अपने लिये। यानी उनके भीतर का लेखक जिंदा रहता था। पढऩे के कारण ही हमारे पूर्ववर्ती पत्रकारों की भाषा सधी हुई और शैली आकर्षक होती थी। (इस बहस में फिर कभी दिमाग उलझायेंगे कि कैसे अखबारी कर्मियों काम को बढ़ाकर उनके पढऩे और ज्यादा से ज्यादा चीजों पर बहस करने पर रोक लगाई गई यह हमारे समय की राजनीति की बेहद बेढ़ंगी चाल है। जिसे तोडऩा कोई बहुत बड़ी बात नहीं। पूरी प्रोफेशनल ईमानदारी से। ) तो कैसे पढऩे-लिखने के लिए ज्यादा से ज्यादा वक्त निकालें।
मुझे नहीं लगता कि कोई भी रिपोर्टर या सब एडीटर 12 घंटे से ज्यादा अपने प्रोफेशन को देता है। बाकी का सब यारी-दोस्ती, खबरों के अलावा पर्सनल बातचीत और चाय-सिगरेट में गुजरता है। अगर इसे इस्तेमाल किया जाये तो कोई कारण नहीं कि दो घंटे रोज पढऩे और एक घंटा रोज लिखने के लिए निकाला ही जा सकता है। असल में समस्या यह नहीं है कि कब लिखें समस्या है कि क्या लिखें और क्यों लिखें। क्योंकि हमारी आदत हो चली है कि जब छपेगा तभी लिखेंगे। सिर्फ लिखने के लिए लिखने की प्रवृत्ति अभी तक हिंदी में नहीं आई है और यही वजह है कि हिंदी कंगाल होती जा रही है। हिंदी की पत्रिकाओं से लेकर अखबार तक स्तरीय लेखों और फीचर के लिए तरसते हैं। रिपोर्ताज, डायरी और संस्मरण का तो लगभग अंतिम वक्त चल रहा है। हां कविताओं में हाथ अजमाने की आलसी प्रवृत्ति खूब है, क्योंकि शब्दों के समुच्चय को कविता कह देने का प्रचलन इधर जोर पकड़ रहा है। उसमें भी दो अखबारों में संपादकीय पेजों की जिम्मेदारी निभाते हुए और मैगजीन सेक्शन में काम करते हुए देखा है कि ट्रांसलेशन और दोयम दर्जे के लेखन से कैसे पेज भरा जाता है। इसके लिए अखबार पैसा भी देते हैं, लेकिन उस पर सेलिब्रिटी लेखकों का कब्जा ज्यादा होता है। सेलिब्रिटी लेखकों की ऊबाऊ और कच्ची समझदारी को जैसे तैसे छपने लायक बनाने की कसरतें हमें लगातार पीछे धकेलती हैं।
मुझे लगता है कि हिंदी लेखन में पेशेवरों की कमी को दूर करने के लिए अखबारों के लिए खबरों का उत्पादन करने वाले रिपोर्टरों और उन्हें आकर्षक अंदाज देते सब एडीटरों को कम से कम एक लेख हर रोज जरूर लिखना चाहिए। जो आदमी लिखता नहीं है और अखबार से बोर होने की बात करता है हकीकतन वह या तो पढ़ता नहीं है या फिर उसके पास विचार नहीं है। दूसरे हिंदी पत्रकार अराजक ज्यादा होता है, लिखने के लिए जिस अनुशासन की जरूरत होती है वह हिंदी न्यूज रूम में सिरे से गायब है। खबर लिखने और उसे एडिट करने के जरूरी काम को भी इधर-उधर टरकाया जाना आम है। साथ ही ज्यादातर पत्रकार मित्रों ने बातचीत में यह माना कि लिखने के लिए अच्छे मूड का होना जरूरी है। मैं मानता हूं कि यह एक भ्रम है। लिखना एक कला है। ठीक उसी तरह, जैसे रोटी बनाना, सड़क बनाना और पेज को लेआउट देना।
एक और बात मैं मानता हूं कि अच्छा लेखन अकेलेपन में ही हो सकता है। लिखना अकेले होने की निशानी है, जैसे बहुत अच्छा लिखना बहुत अकेला होने की। तो तन्हाई में जाइये और शोर मत मचाइये वरना एक अच्छे लेखक से हम वंचित हो जायेंगे।
(कुछ दिनों में "अधिकतम समय दफ्तर में गुजारने की रणनीति और लेखन से दूरी " विषय पर विचार संभव है। यह लेख कब तैयार होगा कह नहीं सकता। शायद कल शायद अगले हफ्ते। कोई सलाह हो तो बतायें। )